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________________ पर त्रिषष्टि शलाका पुरय-चरित्रः पर्व १ सर्ग १. (दो दिनके उपवासके ) बाद पारना करने के लिए आहारपानी लेनेके हेतु, अपने आँगनमें आते उनने देखा । उस समय महीघर कुमारने,जगतके अद्वितीय (दुनियामें जिनके समान दूसरा कोई नहीं हैं ऐसे) वैद्य जीवानंदसे परिहास करते हुए कहा, "तुमको, बीमारियोंकी जानकारी है, दवाइयों मालूम हैं और इलाज भी तुम बहुत अच्छा करते हो, मगर तुममें दया बिलकुल नहीं है। जैसे वेश्या धनके बिना किसीके सामने नहीं देखती बसेही तुम भी धनके बिना परिचित विनती करनेवाले-प्रार्थना करनेवाले दुःखी श्रादमियोंकी तरफ भी नहीं देखते । विवेकी आदमियोंको सिर्फ धनका लोभीही नहीं होना चाहिए ! किसी समय धर्मका खयाल करके भी इलाज करना चाहिए। तुम्हारी रोगोंके कारणोंकी और उनके इलाजकी, जानकारीको विकार है कि तुम ऐसे श्रेष्टपात्र रोगी मुनिका भी खयाल नहीं करते।" (७३६-७४१) यह सुनकर विज्ञानरत्नके रत्नाकर लैंसे जीवानंदने कहा, "तुमने मुन्को याद दिलाई, यह बहुत अच्छा किया ।" धन्यवाद!" अकसर- (७४२) ब्राह्मणवातिरद्विष्टो वणिगजातिरवंचका । प्रियजातिरनीर्ष्यालुः शरीरी च निरामयः ।। विद्वान् धनी गुण्यगर्वः स्त्रीजनश्चापचापलः । राजपुत्रः मुत्ररित्रः प्रायेण न हि दृश्यते ।। [दुनिया में प्राय: ब्राह्मणनाति द्वेष-रहित नहीं होती (द्वेष करनेवाली होती है।) वनियोंकी नाति अवचकं (न ठगनेवाली)
SR No.010778
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Parv 1 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGodiji Jain Temple Mumbai
Publication Year
Total Pages865
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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