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________________ ५३] [ पुण्य-पापकी व्याख्या आपको परिच्छिन्नरूपसे कुछ और जानते हैं और अपनेसे भिन्न प्रपंचको कुछ और समझते हैं तो अनुकूल-प्रतिकूल ज्ञान का प्रकट हो पाना स्वमाविक ही है और यही अज्ञान है। फिर अनुकूलमें राग व प्रतिकूलमें द्रुपका प्रादुर्भाव होना भी जरूरी है। तदनन्तर गगमे पुण्य व द्वेपसे पाप और पुण्यसे सुख व पापसे दु.ख तो कहीं गया ही नहीं। एकके आनेसे दूसरे समी अपने-अपने ठिकाने आ ही जाएँगे। इसीलिये तो श्रुति का दिढोरा है :-- अन्योऽसावन्योऽहमस्मि न स वेद यथा पशुः अर्थ:--'मैं और हूँ, वह और है। ऐसा जो जानता है, वह पशुके समान कुछ नहीं जानता। यही भेदरष्टि एक रोग है शेप सब रोगोंकी जड़ । आत्म-विकासको मव श्रेणियाँ तो इस अहंभावकी जड़को निकालनेके लिये पत्ते-डालियोंके तोड़ने के ममान निमित्तरूप ही थी, न कि पत्ते-डालियाँ तोडकर ही सन्तोप कर लेनेके लिये। जड़ निकले विना नो पत्ते-डालियों का फिर फूट आना आवश्यक ही है। इसी प्रकार अहंभावकी जड़ निकाले विना हो भक जाना और इस निमित्तको ही परिणाम समझ लेना तो प्रकृतिको किसी तरह भी ग्वीकार है ही नहीं। अत्मविकास पञ्चम श्रेणीमे प्रकट होकर अव अपनी पञ्चम श्रेणी, 'देव अवधिको प्राप्त होगया और उसका मनुष्य' अर्थात सरव- [प्रात्ममाव हदसे निकलकर चेहद मे वेत्ता . ___ । पहुँच गया । तरङ्गोमे जलके ममान सव भूतोंमें स्थित अपने श्रात्माको देख-देव अब वह विकसित हो रहा है, मर्यात्मैक्य दृष्टिसे (अर्थात् सब मेरी ही आत्मा है) अपने नाना रूपोको देख-देख समुद्रकं समान उछल रहा है और आनन्दसे डाढ़े मार रहा है।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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