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________________ [ ५२ आत्मावलास ] अपना घर मान बैठे, आगे बढ़नसे मकोच कर लिया और व्हीं कमर खोल दी। यदि वे इन सरायोको ही अपना घर माननेकी मूल न करके वहीं अपनी कमर न खोलते और समझते कि घर इससे आगे है तो इस प्रकार जातीय-विप्लव प्रकट होनेका अवसर ही न मिलता। आये दिनके समाचारपत्र इसके साक्षी हैं, जिसके परिणाममे रागकी वृद्धिके स्थान पर उपवृद्धि होने लगती है। यदि वे जातीय-स्वार्थ पर ही अपने लक्ष्यकी पूर्ति न मान बैठते तो उनके द्वारा अन्य जातियोंसे द्वेप प्रकट न होता, बल्कि अन्य जातियांमे भी प्रेमका विकास होता और उनको गति आगे बढ़ जाती । देश-भक्त-पुरुप देशरवार्थ में ही परिच्छिन्न रहकर यदि अपना गतिको रोक देता है तो उसके परिणाममें अनेक प्रकारके राष्ट्रविप्लवोका प्रकट होना जरूरी है इस विषयमे वर्तमान इङ्गलेण्ड इसका ज्वलन्त दृष्टान्त है । इस देशके निवासी यद्यपि देश-प्रेमी तो है, जो कि चतुर्थ श्रेणीका पवित्र कार्य है, परन्तु इसके माथ ही अपने देशके लिये जौंकके समान अन्य देशोंका रक्त चूसनेमे भी चतुर हैं। यही कारण है कि भारत, मिस्र, आयलॅण्डमे जागृति हो आयी है और इङ्गलैंड की उन्नतिका सूर्ये मध्याह्न पर पहुंच कर ढलना प्रारम्भ हो गया है। कुटुम्वपालूकी चर्चा तो इस सम्बन्धमे पहले ही की जाचुकी है तथा पेटपालूकी तो चर्चा हो क्या है ? वास्तव में वात तो यह है कि 'एक देशीय स्वार्थ' यह शब्द व अर्थ प्रकृतिको मान्य है ही नहीं। स्वार्थके नामसे तो चाहे वह किसी श्रेणीका भी क्यों न हो, यह नाक भी ही चढ़ाती रहती है। स्वार्थके नामसे तो इसको चौका ही फेरना मजूर है । परन्तु किया क्या जाय ? जब तक परिच्छिन्न-अहकार किसी भी श्रशमें मौजूद है, ग्वार्थ से सर्वथा छुटकारा मी कैसे हो सकता है ? जब तक हम अपने
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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