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________________ आत्मविलास] द्वेप स्वामाविक ही है और राग-द्वेपबुद्धिम पाप-पुण्यका सम्बन्ध किस प्रकार है । यह पृष्ट ७ मे १८ पर वर्णन कर आये है। इस प्रकार सुखकी इच्छासं कर्तृत्व-अहंकार व राग-द्वेप दृढ़ होजानेके कारण जीव मनुष्ययो.नेमे पुण्य-पापसे बन्धायमान होता है, परन्तु अन्य योनियोमे नहीं। ___ उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट किया गया कि किस प्रकार जोबमनुष्ययोनिमें किस भावका विकास पापारण व उद्विजयोनि किस अवस्था से श्रारम्भ होकर गुण, अवस्था और का बंधन नहींा कोशाके अनुसार क्रम-क्रमसं प्रकृतिके " अधीन निर्विघ्नतापूर्वक प्रकट होते हुए वह मनुष्ययोनि पर्यन्त पहुँच जाता है और अन्य योनियोंमे जीव अपने कर्मोंका जुम्मेवार न होकर मनुष्ययोनिमें क्योंकर जुम्मेवार बनाया जाता है। मनुष्ययोनिमें भी माताके गर्भ से निकल कर जब तक बच्चेका जीवन माताके स्तनपान पर निर्भर है, वह उसकी सुपुमि-अवस्था है। इससे आगे चल कर जव बच्चेके दाँत निकल गये, कुछ-कुछ अन्न खाने लगा, अपने पॉव पर चलने लगा, गुडे-गुडियोंके खेलोंमें अपना चित्त वहलाने लगा, तब वह उसकी स्वम अवस्था है। क्योंकि इन दोनों अवस्थाओंमें भी इसकी प्रकृति अपूर्ण है, कर्तृत्वअहंकार व बुद्धिका पूर्ण विकास यहाँ नहीं है, इसलिये प्राकतिक नियमानुसार उस पर इन दोनों अवस्थाओंमें अपनी चेष्टाओंका दायित्व आरोपित नहीं हो सकता । तथा उन महापुरुषोंका तो कहना ही क्या है, जो मनुष्य-जन्मको प्राप्त कर 'पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम्' के भारसे मुक्त हुए हैं। जिन्होंने चौरासी लाखके चक्करसे थक कर अपनी कमर खोल दी है और कर्तुत्वाईकार को ज्ञानाग्नि में भस्म कर दिया है।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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