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________________ [ पुण्य-पापको व्याख्या इस विषय को सिद्ध करती है। परन्तु मनुष्ययोनिमें आकर जोक्को यह दशा नहीं रही, यहाँ उसकी प्रकृति पूर्ण हो चुकी है और क त्व-अहकार पूर्ण रूपसे उदय होचुका है । अव वह प्रकृति के अधीन नहीं रहा, बल्कि प्रकृतिके विरुद्ध अनेक चेष्टाएँ करने में समर्थ है, इसलिये उस पर अपनी मब चेष्टाओंका पूर्ण रूपसे दायित्व (जुम्मेवारी) है। जिस प्रकार शिशुकालमें बच्चेकी सब चेष्टा माताके अधीन होती थी, इसलिये अपनी चेष्ट्याओं की जुम्मेवारी भी उसपर न रहकर सब भार माता पर ही रहता था, परन्तु जव बाल्यावस्थासे निकलकर मनुष्य योपन अवस्था को प्रात हो चुका, फिर माता पर अब कोई जुम्मेवारी न रहकर अपनी चेष्टाओका वह आप जुम्मेवार होता है। इसी प्रकार नीची योनियोंमें प्रकृतिके अधीन होनेके कारण जीव पर अपनी चेष्टाओंका ' दायित्व न रहकर, मनुन्थयोनिमें अहंभाव व प्रकृतिकी पूर्णताके कारण जीव पर अपनी मव चेताओंका भार है। गवर्नमेण्टके राज्मे भी ऐसा ही निरम देखनेमे आता है, मनुष्य पर सव प्रकारकी पावन्दी लगाई जाती है, बड़े-बड़े नगरों में सड़क पर चलनेके लिये दफा ३४ का वर्ताव भी सर्व साधारणसे किया जाता है, परन्तु यह कहीं नहीं देखा गया कि उन्हीं सड़कों पर चलनेवाले घोड़े, बैल आदि पशुओं पर भी मलमूत्र त्यागके कारण कोई अपराध निश्चित किया गया हो। आशय यह कि अन्य योनियोंमे अानन्दमयकोशका विकास नहीं हुआ था, इसलिये जीवमे सुखको इच्छा भी वलवती नहीं थी, परन्तु मनुष्ययोनिमें आकर आनन्दमयकोशका पूर्ण रूपसे विकास हो चुका है, इससे सुखकी इच्छा भी तीव्र हो आई है। सुखकी' इच्छासे भोक्तृत्व व क त्व-अइंकार जागृत हो आया है तथा कर त्व-अहंकारसे' पदार्थो में अनुकूल व' प्रतिकूल बुद्धि खिल आई है । अनुकूलमें राग और प्रतिकूलमें
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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