SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 432
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [१५२ श्रात्मविलास दि० सगड बुद्धिका तो खूब विकास हुआ, तो भी या यात्मिक शक्ति जहाँको तहाँ ही रह गई । अध्यात्म-शक्तिका विकास करानेम कंवल ग्रन्थ असमर्थ है। किमी जीवको आधारिमक संस्कार करानेके लिये ऐसे ही महात्माकी आवश्यकता है जो जीवकोटिसे पार निकल गया हो, यह शक्ति अन्यमे नही है। आध्यात्मिक संस्कार जिसका होता है वह है शिष्य, और संस्कार करानेवाला होता है गुरु । भूमि तपकर जोत-जातकर तैयार हो और वीज भी शुद्ध हो, से संयोगर्म ही अध्यात्म-विकास होता है। अध्यात्मकी तीन सुधा के लगते ही, अर्थात् भूमिके तैयार होते ही उसमे ज्ञानरूपी वीज बोया जाता है। सृष्टिका यह नियम है कि अध्यात्म ग्रहण करने की क्षमता होते ही, प्रकाश पहुँचानेवाली शक्ति प्रकट होती है। सत्यज्ञानानन्दस्वरूप सद्गुरुको संसार ईश्वरतुल्य मानता है। शिष्य शुद्धचित्त जिज्ञासु और परिश्रमी होना चाहिये, जब शिष्य अपनेको ऐसा बना लेता है तब उसे श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ, निष्पाप, दयालु और प्रबोधचतुर समर्थ सद्गुरु मिलते हैं। सद्गुरु शिष्यों के नेत्रोमे ज्ञानाञ्जन लगाकर उस दिव्य-दृष्टि देते हैं। ऐसे सद्गुरु बडे भाग्यसे जव मिलें तव अत्यन्त नम्रता, विमल-सद्भाय और दृढविश्वासके साथ उनकी शरण लो, अपना सम्पूर्ण हृदय उन्हे अर्पण करो, उनके प्रति अपने चित्तमें परम प्रेम धारण करो और उन्हें प्रत्यक्ष परमेश्वर समझो । इसीसे भक्ति ज्ञानका अपना समुद्र प्राप्त कर कृतकृत्य होगे।" । सारांश, संसाररूपी समुद्रसे पार होनेके लिये मनुष्य-शरीर बेड़ा है, सद्गुरु इसके पार करनेवाले केवट है और ईश्वरकृपा अनुकूल वायु है। ऐसे चेड़ेको प्राप्तकर जिसने सद्गुरुकृपा व ईश्वरकृपा प्राप्त नहीं की (वास्तवमे गुरुकृपा ही ईश्वरकृपा है, श्वरकृपा भिन्न नहीं), वह आत्महत्यारा है। इसके समान कोई
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy