SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 423
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३३ ] [ साधारण धर्म रूपी पिझरेको तोड़कर ऐसा भपटा कि वह गया! वह गया ! वह गया !! और 'तववाहम्' (मैं तेरा ही हूँ) भावसे निकलकर 'त्वमेवाहम्' (मैं तू ही हूँ) भावमे जाटिका और पूर्णरूपसे सत्त्वगुणमे आरूढ हो गया। परमार्थरूपी वृक्ष हरी-भरी लह- लहाती टहनी-पत्तियोसे सुन्दर फूलके रूपमे विकसित हो पाया। वावा! अब इसकी आँखे किसी दूसरी सम्धी दुल्हनसे लड़ी है, अब इसके कान तुसको सुननेवाले नही रहे, अब तुम इसके रोग की परीक्षा नहीं कर सकते, तुम इसकी नाड़ीको नहीं पहिचान सकते, इसको छोड़ अव अन्य सांसारिक पुरुपोंकी नाडीको टटोलो । अरी! मैं तो राम दीवानी री। मेरा मर्म न जाने कोय । सूली ऊपर सेज पियाकी, किम विधि मिलना होय ।। अब मैं अपने रामको रिझाऊँ। (टक) डाली छे न पत्ता छड़ ना कोई जीव सताऊँ।। पात-पातमें प्रमु बसत है, वाहीको शीश नवाऊँ। (टक) गङ्गा जाऊँ न यमुना जाउँ, ना कोई तीरथ न्हाऊँ। अड़सठ तीरथ घटके भीतर, तिन ही में मल-मल न्हाऊँ। (टक) ओपधि खाऊँ न बूटी लाऊँ, ना कोई वैद्य बुलाऊँ। पूरण वैद्य मिले अविनाशी, वाहीको नब्ज दिखाऊँ। (टंक) ज्ञान कुठारा कसकर बॉघु, सुरत क्मान चढ़ाऊँ। पाँचो चोर वसें घट भीतर, तिनको मार गिराऊँ । (टेक) देखोजी बन्धन सदैव पकड़के लिये ही होता है। भला, त्यागके लिये भी कमी बन्धन हुआ है। सच्चे ऋषि-महर्षि इतने प्रमादी कैसे हो सकते हैं कि रगेदिल अधिकारीके लिये किसी प्रकार वन्धन लगाकर अपनेको दूपित करें। हाँ! अधिकारी होना चाहिये, फिर तो वह सर्व प्रकारसे उसे 'शुभागमन बहने के लिये
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy