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________________ आत्मविलास ] [१३२ वि० साउ पिता है तथा विष्णुभक्त ही हमारे बान्धव है, टम प्रकार तीन लोक ही हमारा भवन है। यह सब इस वैराग्य को ही महिमा है जिमने विपमताका धन्धन तोडकर इस समताका विस्तार किया है। सारांश, जिमको तुम कटु कहते हो वह परम-मधुर है । जिसका कठोर कहा जाता हैं वह परम-कोमलता है। जिसको पृतन्नता कहा गया है वह परम-कृतज्ञता है। जिसको चिरका देना कहते हैं वह परम-मेवा है। जिसको स्वार्थपरायणता कहा जाता है वह म्यान्यागकी अवधि है और जिमको विद्वेप कहते हो वह परम-समता है। केवल तुम्हारे दृष्टिदोपके प्रभावसे ही यह सब विपरीत भावनाएँ हो रही है, अपनी राष्टिको पवित्र करनेसे सभी ताप दूर हो सकते हैं। खैर जी बीती ताहि बिसार दे आगेकी सुधि ले। जो वन प्रावे सहजम ताहीमे चित्त दे। पाण्डित्याभिमानी परन्तु शास्त्रोके केवल परोक्षज्ञानी कोई कहते हैं याज्ञवल्क्य का मत है कि सन्यासमें केवल ब्राह्मणका ही अधिकार है। कोई मनुका प्रमाण निकालकर लाते हैं कि 'मनुने तीन रोका बन्धन लगाया है, इन ऋणोको चुकाये विना सन्यास लेनेसे अधोगति होती है। कोई अन्य ग्रन्थोंफा प्रमाण लाते है और कहते हैं कि 'संन्यास तो हम भी लेते, परन्तु क्या करें कलियुगमें सन्यासका किसी भी वर्णको अधिकार नहीं है।' इस प्रकार अपनी अपनी कॉई-कॉई सब मचाते ही रह गये, परन्तु हमारा आत्मदेव तो मदमाते सिंहके समान संसार___ - देवाण, ऋपिकण और पितृमण । यज्ञ-यागादि करके देवताओंको तृप्त करना देवऋणसे, वेदाध्ययनद्वारा ऋषिणसे और पुत्रपतिद्वारा पितृ से मुक्ति होती है।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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