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________________ आत्मविलास ] [१४ अहंभाव मकुचित होकर बढ होगा,यही पापानौर जितना-जिनना स्वार्थत्याग होगा उतना-उननाही अदभाव विकामको मान होकर फेलेगा, यही पुण्य है । जैन पानी जितना-जितना गीनर नयोग को प्राप्त होगा उतना-उतना ही मागित होकर अपना को प्रार होगा और जितना-जिनना अग्नि के सयोगको पारंगा उतना-नगा ही द्रवीभूत होकर विसारको प्राप्त होगा। यहाँ ताकि भार के रूपमे सूक्ष्म होकर महान ग्राफाशको घर लेगा और साथ ही महान् शक्ति सपन्न भी होजायगा । ठीक. मी नरहने अहभाव जितना-जिनना स्वार्थपरायण होगा,उतना-नना ही नए चितहोकर जडताको प्राम होगा और उतना-तनारी भय-क्रोधादि आसुरी सम्पत्तिका अधिकारी होगा। तथा जितना जितना न्या. त्यागको धारण करेगा,उतना उतना ही सूक्ष्म होकर विस्तृत होगा और उतना-उतना ही शक्ति, शान्ति र निर्भयता प्रादि वी सम्पत्तिका अधिकारी होगा। यहाँ तक कि वह मुमताको धारण करता हुआ और आकाशकं समान नम्पूर्ण मंमाग्ग व्याप्त होता हुश्रा सम्पूर्ण संसारके साथ अपनी एफनामा अनुभव कर मकेगा और इस प्रकार जीवमे शिवरूप बन जायगा। इसके विपरीत अहंभाव जितना-जितना जस्ता को प्राप्त होगा, प्राकृतिक नियमके अनुसार उनके आटेके समान उतना-उतना ही दुःखोंकी चोटें लगना भी स्वाभाविक है। उसी लिये अभावकी दृढ़ता व जडता पापरूप और इसका क्षीण होना पुण्यरूप है। राग हमेशा उन्हीं पदार्थों में होता है, जिनमे सुसवुद्धि होती है और सुखवुद्धि के विषय जो पदार्थ हैं, उनमें आत्मबुद्धि करके ही सुखवुद्धि होती है। अर्थात् अपना-आपा जान कर ही उन पदार्थों में चित्त दिया जाता है, अन्य प्रकारसे तो
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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