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________________ • १३ ] [पाप-पुण्यकी व्याख्या उपयुक्त व्याख्यासे सिद्ध हुआ कि केवल राग पुण्यका राग से पुण्य और हेतु और केवल उप पापका हंतु नहीं, द्वेष से राप मे किन्तु जिस रागके साथ स्वार्थका रहस्य | लगाव है वह सग भी पापरूप और जिस द्वपके साथ स्वार्थत्यागका सम्बन्ध है वह द्वप भी ' पुण्यरूप है। अर्थात् जिस रागके साथ स्वार्थत्याग है वही • पुण्यरूप हो सकता है और स्वार्थमूलक द्वप ही पापरूप है। अव वेदान्तके इन वचनोंकी 'रागसे पुण्य औरद्वेप से पाप होता है। उपयुक्त व्याख्या से कैसे मगति लगाई जाय ? इसका समाधान यह है : वेदान्त कहता है कि संसारमे एक ही पाप है और एक ही पुण्य । अपने आपको यावत् संसारसे भिन्न करके जानना, 'मैं और हूँ, शेप मब संसार मेरेसे भिन्न है, मैं इस साढ़े तीन हाथकी हमें ही महदूद हूँ', इस प्रकारका परिच्छिन्न-अहंकार ही एक पाप है शेष सब पापोंकी जड । 'अन्योऽसावन्योऽहमस्मि न स वेद यथा पशुः । (श्रुति) अर्थात्, 'वह और है, मैं और हूँ' ऐसा भेद-दृष्टियुक्त पुरुप पशु के समान कुछ नहीं जानता। और इस परिच्छिन्नअहंभावका अभाव होना, यही एक पुण्य है सव पुण्यों की भूल। इस सिद्धान्तके अनुसार जिन चेष्टाओद्वारा अहंभाव रद्द होता है वे पापरूप और जिन चेष्टाओंमें अहंभाव शिथिल होता है वे पुण्यरूप होंगी, इसमे संदेह ही क्या है ? इसी कारण यह नियम है कि जितनी-जितनी स्वार्थकी वृद्धि होगी उतना-उतना ही
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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