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________________ आत्मविलास] [१९० द्वि० खण्ड यणता प्रधान है वह तो महान् अधर्म है। ऐसा आशय निकालकर तो हिन्दु-धर्मको लजाना है और इसकी मखौल उड़ाना है। परन्तु नहीं जी धर्म इतना कृपण कैसे हो सकता है ? आश्रमधर्मका मूलहेतु तो वास्तवमें श्रात्मकल्याण है और वह निवृत्तिद्वारा ही सिद्ध होता है। शास्त्रोंका वचन है --- 'प्रवृत्तिरोधको वर्णो निवृत्तिपोपकश्चाश्रमः ।। अर्थात् वर्ण-धर्मका प्राशय प्रवृत्तिको मर्यादामें रखना है और आश्रम-धर्मका प्राशय निवृत्तिको पुष्ट करना है। मूनमें निवृत्ति ही धर्मका मुख्य लक्ष्य है और यही आत्मकल्याणका मुख्य हेतु है । भर्तृहरिजीका क्या ही सुन्दर वचन है: यावत्स्वस्थमिदं शरीरमरुजं यावजरा दूरतो यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यादत्तयो नायुपः । , प्रात्मश्रेयसि तावदेव विदुपा कार्यः प्रयलो महान् संदीप्ते भवने तु कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः ॥ अर्थः-- जबतक यह शरीर स्वस्थ व रोगरहित है, जबतक बुढापा दूर है, जबतक इन्द्रियोंकी शक्ति नष्ट नहीं हुई है और जबतक आयु क्षीण नहीं हुई है, तबतक विद्वानको आत्मकल्याण के लिये महान् पुरुषार्थ कर लेना चाहिये, क्योकि तत्पश्चात् घर जलने लगनेपर कूप खोदनेका उद्यम किस कामका' अर्थात् विचारवानको आयु क्षीण होनेसे पहले-पहले जितना शीघ्र और जिस समय भी हो सके श्रात्मकल्याणके लिये जुट जाना चाहिये। ___ उपयुक्त वचनोंसे स्पष्ट सिद्ध है कि संन्यास आश्रमका जो मूलहेतु तिलक महोदयद्वारा व्यक्त किया गया है वह सर्वथा निर्मूल है और केवल उनकी अपनी कपोल-कल्पना है।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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