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________________ [ साधारण धर्म हैं और अभी तीनों ऋणोका बन्धन लगाते हैं। परन्तु नहीं जी। वहॉ तो प्रमाद कोई था ही नहीं, तिलक महोदय अपने रजोगुणी वेगसे चाहे जो समझ बैठे, दोनो वच्नो की संगति तो स्पष्ट ही है। .. सती-स्त्री जव अपने पतिके लिये जलनेको उद्यत होती है, तब किसकी मजाल है जो उसकी ओर देख सके और उसकी आँखोसे आँखें मिला ले ? भाई! इसकी आँखोंमें तो बलाकी शक्ति भरी पड़ी है हमसे तो देखा नही जाता। सभी उसको मस्तक नवाते है, उसकी भस्मीको भी मरतक पर धारण करते हैं और अपने लोक-परलोककी सर्व कामनाओं के लिये उससे मुरादे माँगते हैं। वेद-शास्त्र भला उसके मार्गमें रोड़े बनकर अपने आपको कलंकित कैसे कर सकते है ? उसकी ठोकरसे तो भय लगता है, कहीं पिसकर चकनाचूर न हो जाएँ। बावा! यह अपने घर जा रही है, इसको कौन बोले ' चुप-चाप कान दबाये पड़े रहो, इसके लिये ऋण-विणका बन्धन कैसा ? अरे भाई । ऋणोंका बन्धन तो उन पशुजीबोके लिये था, जो श्वानके समान सांसारिक भोगरूपी हड्डीको चबाते-चबाते थकते ही न थे। बादशाह-सलामत जब अपने घरा गये तब सब मुसाहिब अपनेआप ही सेवा में हाजिर हो जाते है । जव वैराग्य आया तो ऋण आप ही पूरे हो चुके, ऋणरूप मुसाहियोकी खुशामद तो इस बादशाह-सलामत (वैराग्य) के लिये ही थी। तर तीव्र भयो वैराग्य तो मान अपमान क्या ? जान्यो अपना श्राप तो वेद पुराण क्या ? खुद मस्ती कर मस्त तो मदिरा पान क्या? किचा देहाध्यास तो आत्मज्ञान क्या? वीतराग जब भये तो जगत्को लोड क्या? तृणवत् जान्यो जगन् तो लाख करोड़ क्या ?
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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