SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 390
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १०० आत्मविलास ] द्वि० खण्ड उँटके गलेमे वकरी जोडने के समान जो शरीरोद्वारा ही अभेद वनानेमें तत्पर हो रहे हैं, उनको सच्ची शान्ति देनेवाला और नरकको स्वर्ग बनानेवाला यह अमृतरूप त्याग क्योंकर भला अच सकता है। परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि त्यागमूर्ति स्न. कादिऋपि, याज्ञवल्क्यमुनि, शुकदेवस्वामी तथा शङ्करस्वामी. द्वारा ससारका कर्तृत्व नष्ट हो गया था, अथवा मनुफी आज्ञा. विरुद्ध उनका यह निपिद्ध व्यवहार हुआ था। ऐसा किसी दृष्टान्त या प्रमाणसे सिद्ध नहीं होता। तिलक महोदयको दोपदृष्टिसे वचकर थोड़ी सारग्राही दृष्टि मी धारण करनी चाहिये थी, परन्तु 'अर्थी दोप न पश्यति । अपने रजोगुणी प्रभावसे प्रभावित हो तिलक महोदयने मनुके श्राशयकी यहॉतक बँचातानी की और उनके वचनोंका ऐसा विपरीत भाव ग्रहण कर लिया, यथा हि :___ 'संन्यासके आक्रमणसे समाजको पड्नु होनेसे बचानेके लिये ही मनुने तीनो ऋणोंकी मर्यादा बाँध दी है कि संन्यास लेना ही हो तो इन ऋणोंसे छूटकर ले, पहिले नहीं। यदि ऐसा भी मान लें तो उपनिपद्के उन वचनोंसे भी तो इस श्राशयकी संगति लगानी चाहिये थी, जो मुक्त कण्ठसे पुकारकर कह रहे है : "ब्रह्मचयोदेव प्रव्रजेद् गृहाद्वा वनाद्वा । । यदहरेव विरजेत् तदहरेव प्रव्रजेत् (जावाल उपनिषद्) अर्थ:-ब्रह्मचर्य से ही सन्यास धारण कर लेवे, चाहे गृहस्थसे और चाहे वानप्रस्थाश्रमसे, जिस दिन भी तीव्र वैराग्य हो उसी दिन सन्यास ले ले। ___ क्या उन सर्वज्ञ शास्त्रकारों के दिमागमें प्रमाद था ? जो अभी तो वैराग्यवानके लिये सर्व प्रकारसे निवृत्तिका खुला मार्ग देते
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy