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________________ ६७] [ साधारण धर्म स्थूल होकर और नीचे गिरकर ब्रह्माण्डवायुको ऊँचा नहीं उठा सकती, बल्कि आप अपनी सूक्ष्मताद्वारा ऊँची उठकर ही ब्रह्माएडवायुमे हलचल पौदा कर सकती है। शरीरोंका भेद प्राकृतिक (स्वाभाविक) है और अभेद अस्वाभाविक । प्रत्येक व्यक्तिका स्वानुभव ही इसमें प्रमाण है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने ही निजी शरीरके अगोंमे अभेदव्यवहार कदापि नहीं कर सकता। जो व्यवहार उसका मस्तक व मुखके साथ है, वहीं व्यवहार चरण व पायु श्रादिके साथ असम्भव है । जबकि शरीरसम्बन्धसे अपने ही मे अभेद्रव्यवहार असम्भव है, तब दूसरोके साथ शरीरसम्बन्धमे अभेदव्यवहार कैसे सम्भव हो सकता है। प्रकृतिविरुद्ध होनेसे यह तो निष्फल प्रवृत्ति होगी । हाँ, मन-बुद्धि करके जो भेद बन गया है वह वास्तवमें अस्वाभाविक है और अभेद स्वभाविक । क्योंकि शुद्ध सात्त्विकवुद्धि व शास्त्रप्रमाणद्वारा सम्पूर्ण भूतोमें एक ही निर्विशेष अविनाशी तत्त्वतत्त्ववेत्ताओद्वारा प्रमाणित हुआ है, केवल अशुद्ध बुद्धि करके ही उसमें भेदाभास हो रहा है वास्तवमें नहीं। शुद्धबुद्धिद्वारा उस तत्त्वमे प्रवेश करके ही यथार्थ अचलअभेद सिद्ध हो सकता है। जैसे नाना घटोमे तथा नाना तरङ्गामे उपादान-दृष्टि मृत्तिकारूपये और जलरूपसे ही अभेट स्वाभाविक है, घटो और तरङ्गोकी व्यक्तिदृष्टिम उनकी , एकता असम्भव है, जैसे ही शुद्ध सात्विक बुद्धिद्वारा उस एक कारणरूपमें प्रवेश करके ही अभेद व एकताहो सकती है, अन्यथा नहीं। उस एक कारणरूपसे भिन्न रहकर और शरीरोम यधे रहकर ही अभेद करना चाहें तो धात्रीकी कथाके समान अक्रय कहानी होगी। इसलिये मन-बुद्धिद्वारा चराचर भूतजात तथा : । यात्रीको क्या योगवासिष्ठके उपशम प्रकरणमें श्राती है, जिसमें अपने 'चालकों के चित्त वहनाने के लिए उसने अत्यन्त श्रेसम्भव विषयोंका रथेन किया है। - - - -
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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