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________________ [आत्मविलास जोड़ता है और सत्त्वगुण निवृत्निमें 1(गी. अ. १४ श्लो. ६,७)। यह बात अनुभवसिद्ध है और 'कर्मद्वाग प्रकृतिकी नियुत्तिमुखीनता' के प्रमगमें पीछे प्रथम खण्डमें हमारे द्वाग स्पष्ट किया जा चुका है कि प्रकृतिका स्वाभाविक स्रोत निवृत्तिमुखी दी है और धर्मानुकूल प्रत्येक प्रवृत्तिके गर्भ में निवृत्ति ही गर्मित है जो अवश्य अपने समयपर प्रसारित होगी। इस नियमके अनुसार इस जन्समें अथवा गत जन्ममें जो व्यक्ति प्रवृश्चिमें रत रहकर उससे अधाये हैं और अपने बढ़-चढ़े रजोगुणको खो बैठे हैं तथा जिनके हृदयमै सत्त्वगुणका विकास हो पाया है और जिनका चित्त त्यागपरायण हुआ है, उनकी अपनी प्राकृतिके विरुद्ध कोई भी धर्मशास्त्र अथवा भगवान् यह कैसे कह सकते हैं कि उनके लिये प्रवृत्तिके बन्धनमें फंसे रहना ही स्वधर्म है । यदि वह ऐसा बन्धन लगाते हैं तो न वे धर्मशास्त्र ही हैं और न वे भगवान ही हैं। पूर्व अवस्थामें भी वर्णाश्रमधर्मका बन्धन इसी लिये था कि प्रवृत्ति उच्छद्धल न हो और इस प्रकार प्रवृत्ति मर्यादामें रहकर रजोगुणका वेग निकल जाय तथा निवृत्तिका स्रोत चल पड़े, नकि धर्मबन्धन प्रवृत्तिरूप 'बन्धनके लिये हो थे। नही जी । यह बन्धन कौन सहार सकता है और धर्मशास्त्र अथवा भगवान ऐसे कठोर कैसे बन सकते हैं | जो बन्धनसे मुक्ति के अधिकारीको भी बन्धनमें फैमानेके जिये ही उद्यत रहें और लोक व लोकसेवाकी सत्यताके गीत गाये ही जाएँ, हमारे तिलक भगवान् यह ड्यही भले ही सभाले रक्खें । परन्तु हमारे धर्मशास्त्र और हमारे भगवान्ने तो सचे अधिकारीको मवे प्रकार सञ्ची स्वतन्त्रता व समा स्वराज्य प्राप्त करानेके लिये कमर बाँधी हुई है और मुक्तकण्ठसे कह दिया है:-- "ब्रह्मचर्याद्वागृहाद्वावनाद्वायदहरेव विरजेत वदहरेव प्रव्रजेत्"
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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