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________________ [४७ . साधारण धर्म ] पतित करनेवाला है। क्योकि इस समय अर्जुनके लिये यही तो विवादका विषय बन रहा था । हॉ, यह बात ठीक है कि उन्होंने अर्जुनको इसका अधिकारी नहीं पाया और अध्याय २ श्लो. ३१ से ३५ तक 'युद्ध ही तेरा धर्म है 'युद्ध न करनेसे नू अपने स्वधर्म व कीर्तिको नष्ट करेगा' इत्यादि रूपसे उसको उपदेश किया। परन्तु यह कहीं नही कहा कि निवृत्तिपक्ष निन्दित है अथवा विकर्म है। इसके विपरीत भगवान्ने तो स्पष्ट रूपसे अधिकारको स्थिर रक्खा है और स्पष्ट ही कहा है: श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । ' स्वधर्मे निधन श्रेयः परधर्मो भयावह ॥ (अ. ३-३५) अर्थः-दूसरेके धर्मको अच्छी तरह आचरणम लानेकी अपेक्षा अपना गुणरहित धर्म भी कल्याणकारी है, अपने धर्माचरणमे मरना भी श्रेयस्कर है, परन्तु पराया धर्म भयको देने वाला है। यही श्लोक अ. १८.४७. में कुछ हेर-फेरसे फिर भी निरूपण किया है और अ. १५.४८ में फिर ताकीद की है कि अपना स्वाभाविक कर्म चाहे दोपवाला भी हो परन्तु उसका त्याग न करे, क्योकि यूं तो सभी कर्म बूमसे अग्निके सदृश दोपोंसे घिरे हुये होते हैं। हॉ,अर्जनको भगवान्ने रजोगुणके कारण निवृत्तिका अधिकारी नहीं पाया और उसको युद्धमे ही जोड़ना जरूरी समझा। परन्त न तो यह कहा जा सकता हैं और न कदापि.भगवानका ही यह श्राशय हो सकता है कि संघको प्रवृत्तिमें ही फंसे रहना जरूरी है। . विचार से देखा जाय तो कर्ममें प्रवृत्ति व निवृत्ति प्रकृतिके तीन गुणोके अधीन ही होती है और वे प्राकृतिक गुण ही प्रवृत्ति प.निवृत्तिमें प्रेरक हैं। रजोगुण वृद्धिको प्राप्त हुआ प्रवृत्तिमें A
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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