SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 331
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [४१ साधारण धर्म] __ अर्थ:-जो आत्यन्तिक सुख इन्द्रियोंसे अतीत केवल (सूक्ष्म) बुद्धिद्वारा ही ग्रहण करने योग्य है, जिस अवस्थामें उसको अनुभव करता है और जिसमें स्थित हुश्रा भगवत्स्वरूपमे चलायमान नहीं होता, जिसको पाकर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ पानेयोग्य नहीं मानता और जिसमें स्थित हुआ महान दुःखसे भी चलायमान नहीं होता, दुःखसंयोगसे रहित उस स्थितिकी 'योग' संज्ञा जाननी चाहिये । तत्पर हुए चित्तसे वह 'योग' निश्चयपूर्वक उपार्जन करने योग्य है। इसी अध्यायमें आगे चलकर इसी तत्त्वज्ञानीकी 'योग' रूपसे प्रशंसा की गई है और श्लोक २६, ३०, ३१, ३२ में कहा गया है कि 'योगसे जिसका आत्मा युक्त है, ऐसा सर्वत्र समदर्शी पुरुष सर्वभूतोंमें स्थित अपने आत्माको और सर्च भूतोंको अपने आत्मामें समान रूपसे देखता है । (गी. अ. ६ श्लो. २६)। ___ 'जो मुझको सर्वत्र देखता है और सर्वको मेरेमें देखता है, उसके लिये न मैं अदृश्य होता हूँ और न वह मेरे लिये अदृश्य होता है। (गी. अ. ६. ३०)।। ___ 'जो सर्वभूतों में एकीभावसे स्थित मुझ परमात्माको (समताघष्टिस) भजता है, वह योगी सर्व प्रकार वर्तता हुआ भी मुझमें ही रम रहा है ।। (गी. अ. ६ श्लो ३१)।। ___ हे अर्जुन! अपनी उपमा करके (अर्थात् जैमी अपने शरीरमें आत्मदृष्टि है, वैसी ही सर्वभूनोंमें श्रात्मदृष्टि रखनेवाला) जो सर्वत्र समान रूपसे देखता है, चाहे सुख हो चाहे दुःख हो सर्व सुख-दुःखोंको जो आत्मरूपसे आलिङ्गन करता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है। (गी. अ. ६ श्लो. ३२)। 5. इससे अगले ३३ वें श्लोकमें ही अर्जुन इस ज्ञानरूप योगको महिमासे चकित हो मगवानसे पूछता है कि हे मधुसूदन ! यह
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy