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________________ . [७ साधारण धर्म ] यमयति एप त आत्मा अंन्तर्याम्पमृतः। (वृहदारण्यकोपनिपत अ. ३. ना. ७) अर्थः-यह जो हृदयके अन्दर ही ज्योतिरूप पुरुष विद्यमान है, 'यही तेरा आत्मा है। जो मनमें बैठा हुआ भी (अपनी व्यापकता करके) मनसे याच देशमें भी है, मन जिस परमात्मा का शरीर है, जिस परमात्माको मन नहीं जान सकता, जो मन के अन्दर स्थित हुआ प्रेरणा कर रहा है, यही अन्तर्यामी अमृतरूप तेरा श्रात्मा है। ___ इस प्रकार श्रुति उस ब्रह्मको अपरोक्षरूपसे सबका अपनापाप कह कर प्रात्मरूपसे बोध करती है । ऐसा जो सबका अपना-आप और सबके हृदयमें ही विराजमान अन्तर्यामीदेव है, नहीं कहा जा सकता कि उसको कर्मद्वारा कैसे प्राप्त किया जाय ? बल्कि सच पूछिये तो कर्मके द्वारा तो उल्टा उसको सला देना है, खो देना है। एक छोटेसे रटान्तसे इसको स्पष्ट किया जाता है: दस मनुष्य, जो परस्परमें मित्र थे, मिलकर देशाटनको निकले । मार्गमें उनको एक भारी नदी आई जिसको उन्हें तैर कर पार-जाना पड़ा। नदीपार होकर उन्होने विचार किया कि अपने दसों मित्रोंको संभाल लें हममेंसे कोई नदीमें डूब न गया हो । निदान वे गिनती करने लगे। उनमसे एकने अपनी मित्रमण्डलीकी गिनती की। वह अपनेको गिनना भूलकर शेप नौ को गिन गया और हैरान हो कहने लगा, "एक मित्र डूब गया !" इस पर दूसरे मित्रने कहा, "ठहरो, घबरानो नहीं, मैं गिनती करता हूँ।" उसने गिनती श्रारंभ की और वह भी पूर्ववत् अपनेको गिनना छोड़ शेष नौ को गिन गया। इससे एक मित्र को डूया जान उनकी
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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