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________________ [ श्रात्मविलास का स्वरूप प्रवृत्ति और ज्ञानका स्वरूप कमत्यागरूप निवृत्ति, दोनोंका परस्पर विरोध है। तिलक महोदयका यह वचन ठीक उम वैद्यके ममान है. को सन्निपात-रोगपीडित अपने रोगीको यह नुमखा देता है कि रोगनिवृत्ति के लिये चाहे यह एक रेचक ओषधि लो, चाहे वह दूसरी पाचक । रोगी हैरान है कि वैद्यका दिमाग फिर गया है। हाँ, यह पान तो सम्भव हो सकती थी कि प्रथम रेचक श्रोपधिसे पेट साफ करके अन्य कालमें पाचक श्रोषधि तजयीज की जाती, अथवा प्रथम पाचक श्रोपधिसे दोषों को पका कर फिर पेट साफ करने के लिये रेचक दी जाती । परन्तु दोनों श्रोपधि परस्पर विरोधि । दोनों विकल्पसे और समकालीन! इस प्रकार यह वैद्य किमी प्रकार भी रोगीका विश्वासपात्र नहीं हो सकता। ठीक, यही अवस्था तिलकमतकी है । हाँ, पहले ज्ञान पीछे कर्म, अथवा पहले कर्म पीछे ज्ञान, अवस्था भेदमे और कालभेदमं तज्वीज़ किये जाते तो अवश्य नुसखा प्रदायोग्य हो सकता था, परन्तु यहाँ तो आव देखा न ताव तत्काल दोनों घातें विकल्पसे लिख डाली गई। मोक्षप्राप्तिका विपय जो ब्रह्म है, यदि वह स्वर्गलोक और कुष्ठ लोकादिकोंके समान देशकालपरिच्छेदवर्ती माना जाता, तो अवश्य उसकी प्रापिके निमित्त कर्मको साधनता बन सकती यो । परन्तु गेमा देशकालवी ब्रह्मका स्वरूप तिलक महोदय ने फिनी स्थल पर स्वीकार नहीं किया और अतिभगवती तो मुक्त. पठनं उस परमका स्वरूप निरमण करते हुए स्पष्ट कथन फरती है य एष: हयन्तन्योतिः पुरुषः यो मनसि तिष्ठन् मनसोऽन्तरी यस्य मना शरीरं यं मनो न वेद यो मनसोऽन्तरो
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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