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________________ आत्मविलास] [२१२ (२) यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्तेति नैयायिकाः । अर्हनित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः सोऽयं नो विदधातु वाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः ॥ अर्थः-(१) उस अनन्तके लिये हमारा नमस्कार हो, जिसकी सहस्रों मूर्तियाँ, सहस्रो पाद, नेत्र, शिर, उरु और भुनाएँ हैं तथा उस सहस्रों कोटि युगको धारण करनेवाले शाश्वत-पुरुप के लिये हमारा नमस्कार हो, जिसके सहस्रों ही नाम हैं। . (२) शैव जिस देवकी 'शिव' रूपसे उपासना करते है, वेदान्ती लोग जिसको 'ब्रह्म रूपसे, वुद्धमतावलम्बी 'बुद्ध' रूपसे, प्रमाणकुशल नैयायिक संसारके 'कर्ता' रूपसे , जैनमतके शासन में रत हुए पुरुप 'अर्हत' (ऋपभदेव) रूपसे और मीमांसक जिसे रूपसे पूजते हैं। वहीं ये त्रैलोक्याधिपति श्रीहरि हमको वाञ्छित मोक्षफल प्रदान करे। तव च्या उपासकका हृदय द्रवीभूत न होगा ? उसके भाव सर्वव्यापी भगवानको जोकि मूर्तिमें और हृदयमें दोनों ही जगह विद्यमान है, द्रवीभूत न करेंग १ और उसे सम्मुख खड़ा न कर लेंगे १ इस रीतिसे मूर्तिको भगवानका फोटो मानकर भी तुन्हारी शङ्का निमूल ही रहती है। नामदेवादि वालक जिन्होंने अपने सरल भावोंसे मूर्तिदेशमें भगवानको प्रत्यक्ष कर लिया था, इसके ज्वलन्त दृष्टान्त हैं। उपासना किस देवकी की जाय ? इसके समाधानमें शा. कारोंने प्रकृतिके तत्त्वपर भली-भाँति ध्यान उपास्यदव | देकर प्रकृतिजन्य पञ्च तत्त्व आकाश, वाय, तेज, जल और पृथ्वीके सञ्चालक पञ्चदेव विला
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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