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________________ १६५] [साधारण धर्म निगुण और सगुण दोनों रूपोंसे 'नाम' वड़ा है, जिसने दोनोंको अपने वलसे अपने वश कर रक्खा है ॥१०॥ प्रौदि सुजन जनि जानहिं जनकी । कहहुँ प्रतोति प्रीति रुचि मन की ॥ पावक युग सम ब्रह्म विवेकू । एक दारु गत देखिये एकू ॥ ११ ॥ सज्जन पुरुप मेरी यह अतिशयोक्ति न समझे। मैं अपने मनकी प्रीति, रुचि और विश्वास कथन करता हूँ। ब्रह्मविवेक उन दोनों प्रकारकी अग्निके समान है जिनमें एक लकड़ीके भीतर है पर दिखवी नहीं और दूसरी वाहर दीखती है ॥११॥ उभय अगम युग सुगम नामते । कहहुँ नाम बड़ ब्रह्म रामते ।। व्यापक एक ब्रह्म अविनाशी । सत चेतन धन आनन्द राशी ॥ १२॥ इस प्रकार यद्यपि निर्गुण व सगुण दोनों ही अगम है,तथापि नामसे दोनों सुगम हो जाते हैं । अतः निगुण व सगुण दोनों रूपोंसे मैं तो'नाम'को ही बड़ा कहता हूँ ब्रिह्म एक है और व्यापक, अविनाशी है तथा सत्,चेतनधन और आनन्दकी राशी ही है॥१२॥ अस प्रभु हृदय अछत अविकारी । . सफल जीव जग दीन दुखारी ॥ नाम निरूपण नाम' यतन ते । सो प्रगटत जिमि मोल रखन ते ॥१३॥
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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