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________________ १७ ] [साधारणधर्म अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्प परन्तप । अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ।। (९-३) अर्थात् श्रद्धावान्, तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुप ही ज्ञानको प्राप्त करता है। श्रद्धाहीन, अज्ञानी व संशयात्मा पुरुष नष्ट हो जाता है। हे परन्तप ! जो इस धर्ममें श्रद्धाशून्य हैं वे मुझे न पाकर जन्म-मरणरूप संसारमें ही पुनरावृत्तिको प्राप्त होते हैं। उक्त वचनोंके अनुसार निष्काम-जिज्ञासु जिसका अन्तःकरण गुरु-शास्त्रके वचनोंमें शुद्ध सात्त्विकी श्रद्धासे पूर्ण है, भगवान्के अलौकिक अवतारोंकी अलौकिक लीलाओंके श्रवण-कीर्तनादि नवधा भक्तिके सहारेसे अन्तिम आत्म-निवेदन भक्तिको प्राप्त कर सकता है और उपासकमावसे ऊँचा उठकर उपास्यरूप बन कर ही उपास्यदेवकी उपासना कर सकता है तथा साधकसे सिद्ध वन जाता है :'कृष्ण-कृष्ण कहते कहते मैं ही कृष्ण होगई।' ,मी(बाई) . यही वास्तव में निर्गुण उपासना है जो कि इस सगुण उपासनाद्वारा ही प्राप्त की जा सकती है, जिसके द्वारा देहेन्द्रियादिपर से अनायास साधकका अधिकार छूट जाता है और तब वह वंशीधर इनको अपने हाथमें उठाकर इनसे मधुर मधुर शब्द निकालने लगता है। इसके विपरीव इस सगुण उपासनाका परित्याग- करके निर्गुण उपासनाफा मिथ्या हठ करना वो 'प्रलापमात्र है। . सगुण उपासनाकी आवश्यकता स्पष्ट की गई, परन्तु कपणसगुण उपासनाका | चित्त इस उपासनाका अधिकारी नहीं हो साधन, प्रथम श्रेणी।। सकता। जिसने सांसारिक तुच्छ पदार्थों , पर ही अपना अधिकार जमाया हुआ है,
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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