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________________ श्रामविलास ] [१७८ कर्मों के अनुसार ही इस जीवको वैसी-वैली योनिकी प्राप्ति होती है। इससे स्पष्ट हुआ कि इहलौकिक व पारलौकिक सब प्रकारकी वृद्धि-क्षतिके भूलमे एकमात्र श्रद्धाका ही राज्य है। कहना पड़ेगा कि वर्तमानमे जिस-जिस जीवको जिस-जिस योनि और भोगोंकी प्रामि हो रही है वे उसकी किसी न किसी श्रद्धाके ही परिणाम हैं, अर्थात् श्रद्धारूपी मूलके ही वे फल हैं। इसी लिये भगवानका वचन है :श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ' (गी, १७.३) सत, रज व तमभेदसे त्रिविध श्रद्धा निरूपण करके भगवान् कहते हैं कि 'जैसी जिसकी श्रद्धा होती है वैसा ही उसका स्वरूप होता है, क्योंकि यह पुरुप श्रद्धामय ही है। इस तत्वके अनुसार श्रद्धाद्वारा दानी पुरुपोंके श्रवण, कीर्तन व स्मरणसे कृपण मी उदार हो सकता है, वीर पुरुषोंके श्रद्धाद्वारा श्रवण-कीर्तनादिसे कायर मी वीर हो जाता है और दयालु पुरुपोंके श्रद्धाद्वारा श्रवणादिसे कठोर भी दयालु हो जाता है। विपरीत इसके कृपणोंमें श्रद्धा करके उदार भी कृपण, कायरों में श्रद्धा करके वीर भो कायर और कठोरमें श्रद्धा करके कोमल भी कठोर वन सकता है । संसारमे जिस-किसी पुरुषको सांसारिक विद्या अथवा व्यवसायकी प्राप्ति हुई है, वह उसकी श्रद्धाका ही फल है। श्रद्धा विना जब कि तुच्छ सांसारिक कला-कौशलादि की प्राप्ति ही असम्भव है, तब उस अगम्य वस्तुकी प्राप्ति, जो कि मन-इन्द्रियोंसे अतीत है श्रद्धा विना कैसे सम्भव हो सकती है ? इसी लिये भगवान्ने स्थल-स्थलपर गीतामें श्रद्धाकी महिमा वर्णन की है:'श्रद्धावाल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः । (४-३६) 'अज्ञवाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति । (१-४०)
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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