SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ६ आत्मविलाम ] असौ मया हतः शत्रुहनिष्ये चापरानपि । ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं वलवान्सुखी ।। आट्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योस्ति महशो मया (पलो. १३. यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इन्यज्ञानविमोहिताः || ११.१५) अर्थ:-उन पुरुषोंके संकल्प इस प्रकारकं होते है:-मैन अाज यह तो पाया है, इस मनोरथको और प्राप्त होऊँगा, मेरे पाम यह इवना धन तो है और उनना और भी हो जावेगा। मेरे द्वारा वह शत्रु मारा गया और दूसर शत्रु को भी मारूंगा, में ईश्वर हूँ, ऐश्वर्यका भोगनेवाला हूँ और में मत्र सिद्वियोंसे युक्त बलवान एवं सुखी हूँ। मैं वड़ा बनवाला और बड़े कुलवाला हूँ. मेरे समान दूसरा कौन है ? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूंगा, हर्षको प्राप्त होगा। इस प्रकारके अनानसे वे विमोहित हैं। ऐसे पुरुषोंके द्वारा दान-यन्त्र, विवाह-यज्ञ, तप-यज्ञ इत्यादि अनेक प्रकारके बहुमूल्य आचारोंका व्यवहार तो होता है, परन्तु सब ही पाप-यज्ञ हैं। जिनका मुख्य उद्देश्य केवल अहंकार व वड़ाईको पुष्ट करना ही होता है, जोकि सब दुःखोंका मूल है। जिनका लक्षण तमोगुणी रूपसे गीता अध्याय १७ में इस प्रकार वर्णन किया गया है। विधिहीनमसृष्टान्नं मंत्रहीनमदक्षिणम् । श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥ (श्लोक १३) अर्थः-शास्त्रविधिसे हीन, अन्नदानसे रहित एवं बिना मंत्रो, बिना दक्षिणा और विना श्रद्धाके किये हुए यज्ञको तामस यज्ञ कहते हैं।
SR No.010777
Book TitleAtmavilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanandji Maharaj
PublisherShraddha Sahitya Niketan
Publication Year
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy