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________________ ANANAAN गुणादिपरिचय । ६१ उन्हें प्रायः इसी विशेषणके साथ स्मरण किया है । यद्यपि और भी कितने ही आचार्य 'स्वामी' कहलाते थे परंतु उनके साथ यह विशेषण उतना रूढ नहीं है जितना कि समंतभद्रके साथ रूढ जान पड़ता है-समंतभद्रके नामका तो यह प्रायः एक अंग ही हो गया है। इसीसे कितने ही महान् आचार्यों तथा विद्वानोंने, अनेक स्थानों पर नाम न देकर, केवल 'स्वामी' पदके प्रयोग द्वारा ही आपका नामोल्लेख किया है * और इससे यह बात सहजहीमें समझमें आ सकती है कि आचार्य महोदयकी ' स्वामी ' रूपसे कितनी अधिक प्रसिद्धि थी। निःसंदेह, यह पद आपकी महती प्रतिष्ठा और असाधारण महत्ताका द्योतक है। आप सचमुच ही विद्वानोंके स्वामी थे, त्यागियोंके स्वामी थे, तपस्वियों के स्वामी थे, ऋषिमुनियों के स्वामी थे, सद्गुणियोंके स्वामी थे, सत्कृतियों के स्वामी थे और लोकहितैषियोंके स्वामी थे। * देखो-वादिराजसूरिकृत पार्श्वनाथचरितका ' स्वामिनश्चरितं' नामका पथ जो ऊपर उद्धृत किया गया है। पं० आशाधरकृत सागारधर्मामृत और अनगारधर्मामृतकी टीकाओंके 'स्वाम्युक्ताष्टमूलगुणपक्षे, इति स्वामिमसेन दर्शनिको भवेत्, स्वामिमतेन स्विमे (अतिचाराः), अत्राह स्वामी यथा, तथा च स्वामिसूक्तानि' इत्यादि पद; न्यायदीपिकाका 'तदुक्तं स्वामिभिरेव ' इस वाक्यके साथ 'देवागम' की दो कारेकाओंका अवतरण; और श्रीविद्यानंदाचार्यकृत अष्टसहस्री आदि ग्रंथोंके कितने ही पद्य तथा वाक्य जिनमेंसे 'नित्यायेकान्त ' भादि कुछ पद्य ऊपर उद्धृत किये जा चुके हैं।
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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