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________________ ६० स्वामी समंतभद्र। इष्ट है और इस लिये वह प्रयोजन भी इस स्तोत्रकी उपपत्तिका एक इससे स्पष्ट है कि समंतभद्रके ग्रंथोंका प्रणयन-उनके वचनोंका अवतार--किसी तुच्छ रागद्वेषके वशवी होकर नहीं हुआ है। वह आचार्य महोदयकी उदारता तथा प्रेक्षापूर्वकारिताको लिये हुए है और उसमें उनकी श्रद्धा तथा गुणज्ञता दोनों ही बातें पाई जाती हैं । साथ ही, यह भी प्रकट है कि समंतभद्रके ग्रंथोंका उद्देश्य महान् है, लोकहितको लिये हुए है, और उनका प्रायः कोई भी विशेष कथन गुणदोर्षोंकी अच्छी जाँचके बिना निर्दिष्ट हुआ नहीं जान पड़ता। यहाँ तकके इस सब कथनसे ऐसा मालूम होता है कि समंतभद्र अपने इन सब गुणों के कारण ही लोकमें अत्यंत महनीय तथा पूजनीय थे और उन्होंने देश-देशान्तरोंमें अपनी अनन्यसाधारण कीर्तिको प्रतिष्ठित किया था। निःसन्देह, वे सद्बोधरूप थे, श्रेष्ठगुणोंके आवास थे, निर्दोष थे और उनकी यशःकान्तिसे तीनों लोक अथवा भारतके उत्तर, दक्षिण और मध्य ये तीनों विभाग कान्तिमान थे-उनका यशस्तेज सर्वत्र फैला हुआ था; जैसा कि कवि नरसिंह भट्टके निम्न वाक्यसे पाया जाता है समन्तभद्रं सदोघं स्तुवे वरगुणालयं । निर्मलं यद्यशष्कान्तं बभूव भुवनत्रयं ॥२॥ -जिनशतकटीका । अपने इन सब पूज्य गुणोंकी वजहसे ही समंतभद्र लोकमें 'स्वामी' पदसे खास तौर पर विभूषित थे। लोग उन्हें ' स्वामी' 'स्वामीजी ' कह कर ही पुकारते थे, और बड़े बड़े आचार्यों तथा विद्वानोंने भी
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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