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________________ गुणादिपरिचय । उनकी प्रवृत्ति हुई है, और उन्होंने संपूर्ण मिथ्या प्रवादको विघटित---- तितर वितर-कर दिया है। प्रज्ञाधीशप्रपूज्योज्ज्वलगुणनिकरोद्भुतसत्कीर्तिसम्पद्विद्यानंदोदयायानवरतमखिलक्लेशनिर्णाशनाय । स्ताद्गौः सामन्तभद्री दिनकररुचिजित्सप्तभंगीविधीद्धा भावाद्येकान्तचेतस्तिमिरनिरसनी वोऽकलंकप्रकाशा ॥ -अष्टसहस्री। इस पद्यमें वे ही विद्यानंद आचार्य यह सूचित करते हैं कि समन्तभद्रकी वाणी उन उज्ज्वल गुणोंके समूहसे उत्पन्न हुई सत्कीर्तिरूपी सम्पत्तिसे युक्त है जो बड़े बड़े बुद्धिमानों द्वारा प्रपूज्य* है; वह अपने तेजसे सूर्यको किरणको जीतनेवाली सप्तभंगी विधिके द्वारा प्रदीप्त है, निर्मल प्रकाशको लिये हुए है और भाव-अभाव आदिके एकान्त पक्षरूपी हृदयांधकारको दूर करनेवाली है । साथ ही, अपने पाठकोंको यह आशीर्वाद देते हैं कि वह वाणी तुम्हारी विद्या (केवलज्ञान ) और आनन्द ( अनंतसुख ) के उदयके लिये निरंतर कारणीभूत होवे और उसके प्रसादसे तुम्हारे संपूर्ण क्लेश नाशको प्राप्त हो जायँ । यहाँ 'विद्यानन्दोदयाय' पदसे एक दूसरा अर्थ भी निकलता है और उससे यह सूचित होता है कि समंतभद्रकी वाणी विद्यानंदाचार्यके उदयका कारण हुई है+ और इसलिये उसके द्वारा उन्होंने अपने और उदयकी भी भावना की है। * अथवा समन्तभद्रकी भारती बड़े बड़े बुद्धिमानों (प्रज्ञाधीशों ) के द्वारा प्रपूजित है और उज्ज्वल गुणोंके समूहसे उत्पन्न हुई सत्कीर्तिरूपी सम्पत्तिसे + नागराज कविने, समन्तभद्रकी भारतीका स्तवन करते हुए जो 'पात्रके
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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