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________________ ३२ स्वामी समन्तभद्र। कहा जा सकता है कि वह उक्त पद्यका दूसरा रूप है जो करहाटकके बाद किसी दूसरी राजसभामें कहा गया होगा । परंतु वह दूसरी राजसभा कौनसी थी अथवा करहाटकके बाद समंतभद्रने और कहाँ कहाँ पर अपनी वादभेरी बजाई है, इन सब बातोंके जाननेका इस समय साधन नहीं है । हाँ, राजावलीकथे आदिसे इतना जरूर मालूम होता है कि समंतभद्र कौशाम्बी, मणुवकहल्ली, लाम्बुश (?), पुण्डोड, देशपुर और वाराणसी (बनारस ) में भी कुछ कुछ समय तक रहे हैं। परंतु करहाटक पहुँचनेसे पहले रहे हैं या पीछे, यह कुछ ठीक मालूम नहीं हो सका। ___ बनारसमें आपने वहाँके राजाको सम्बोधन करके यह वाक्य भी कहा. था कि'राजेन् यस्यास्ति शक्तिः स वदतु पुरतो जैननिर्ग्रन्थवादी ।" अर्थात-हे राजन् मैं जैननिर्ग्रन्थवादी हूँ, जिस किसीकी भी शक्ति मुझसे वाद करनेकी हो वह सन्मुख आकर वाद करे। __ और इससे आपकी वहाँपर भी स्पष्ट रूपसे वादघोषणा पाई जाती है । परन्तु बनारसमें आपकी वादघोषणा ही होकर नहीं रह गई, बल्कि वाद भी हुआ जान पड़ता है जिसका उल्लेख तिरुमकूडल १ अलाहाबादके निकट यमुना तट पर स्थित नगर; यहाँ एक समय बौद्ध धर्मका बड़ा प्रचार रहा है । यह वत्सदेशकी राजधानी थी। २ उत्तर बंगालका पुण्ड नगर। ३ कुछ विद्वानोंने ' दशपुर'को आधुनिक 'मदसौर ' ( मालवा) और कुछने ' धौलपुर ' लिखा है; परंतु पम्परामायण ( ७.३५) में उसे 'उज्जयिनी पासका नगर बतलाया है और इसलिये वह ' मन्दसौर' ही मालम होता है। ४ यह 'कांच्या नाटकोहं' पयका चैया चरण है।
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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