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________________ प्रन्थ-परिचय । २४३ हजार वर्षके भीतरका एक भी उल्लेख नहीं है और यह समय इतना तुच्छ नहीं हो सकता जिसकी कुछ पर्वाह न की जाय; बल्कि महाभाष्यके अस्तित्व, प्रचार और उल्लेखकी इस समयमें ही अधिक संभावना पाई जाती है और यही उनके लिये ज्यादा उपयुक्त जान पड़ता है । अतः पहले उल्लेखोंके साथ पिछले उल्लेखोंकी श्रृंखला और संगति ठीक बिठलानेके लिये इस बातकी खास जरूरत है कि १२ वीं शताब्दीसे ३ री शताब्दी तकके प्राचीन जैनसाहित्यको खूब टटोला जायउस समयका कोई भी ग्रंथ अथवा शिलालेख देखनेसे बाकी न रक्खा जाय;-ऐसा होनेपर इन पिछले उलखाकी शृंखला और संगति ठीक बैठ सकेगी और तब वे और भी ज्यादा वजनदार हो जायेंगे । साथ ही, इस ढूँढ़-खोजसे समन्तभद्रके दूसरे भी कुछ ऐसे ग्रंथों तथा जीवनवृत्तान्तोंका पता चलनेकी आशा की जाती है जो इस इतिहासमें निबद्ध नहीं हो सके और जिनके मालूम होनेपर समन्तभद्रके इतिहासका और भी ज्यादा उद्धार होना संभव है । आशा है पुरातत्त्वके प्रेमी और समन्तभद्रके इतिहासका उद्धार करनेकी इच्छा रखनेवाले विद्वान् जरूर इस ढूँढखोजके लिये अच्छा यत्न करेंगे और इस तरहपर शीघ्र ही कुछ विवादग्रस्त प्रश्नोंको हल करनेमें समर्थ हो सकेंगे। जो विद्वान् अपने इस विषयके परिश्रम तथा अनुभवसे हमें कोई नई बात सुझाएँगे अथवा इतिहासमें निबद्ध किसी बातपर युक्तिपूर्वक कोई खास प्रकाश डालनेका कष्ट उठाएँगे वे हमारे विशेष धन्यवादके पात्र होंगे और उनकी उस बातको अगले संस्करणमें योग्य स्थान दिये जानेका प्रयत्न किया जायगा। इति भद्रम् । सरसावा, जि. सहारनपुर । जुगलकिशोर, मुख्तार। वैशाख शुका २, सं० १९८२)
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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