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________________ २४२ स्वामी समन्तभद्र। परसे भी यह धनि निकलती है कि उससे पहले किसी दूसरे ग्रन्थ अथवा प्रकरणकी रचना हुई है। ऐसी हालतमें, उस ग्रन्थराजको 'गंधहस्ति ' कहना कुछ भी अनुचित प्रतीत नहीं होता जिसके ' देवागम' और ' युक्त्यनुशासन' जैसे महामहिमासम्पन्न मौलिक प्रन्थरत्न भी प्रकरण हो । नहीं मालूम तब, उस महाभाष्यमें ऐसे कितने ग्रंथरत्नोंका समावेश होगा । उसका लुप्त हो जाना निःसन्देह जैनसमाजका बड़ा ही दुर्भाग्य है। __ रही महाभाष्यके मंगलाचरणकी बात, इस विषयमें, यद्यपि, अभी कोई निश्चित राय नहीं दी जा सकती, फिर भी 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' नामक पद्यके मंगलाचरण होनेकी संभावना जरूर पाई जाती है और साथ ही इस बातकी भी अधिक संभावना है कि वह समन्तभद्रप्रणीत है । परंतु यह भी हो सकता है-यद्यपि उसकी संभावना कम हैकि उक्त पद्य उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण हो और समन्तभद्रने उसे ही महाभाष्यका आदिम मंगलाचरण स्वीकार किया हो । ऐसी हालतमें उन सब आक्षेपोंके योग्य समाधानकी जरूरत रहती है जो इस पद्यको तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण मानने पर किये जाते हैं और जिनका दिग्दर्शन ऊपर कराया चुका है। हमारी रायमें, इन सब बातोंको लेकर आर सबका अच्छा निर्णय प्राप्त करनेके लिये, महाभाष्यके सम्बंधमें प्राचीन जैनसाहित्यको टटोलनेकी अभी और जरूरत जान पड़ती है, और वह जरूरत और भी बढ़ जाती है जब हम यह देखते हैं कि ऊपर जितने भी उल्लेख मिले हैं वे सब विक्रमकी प्रायः १३ वी, १४.वीं और १५ वीं शताब्दियों के उल्लेख हैं, उनसे पहले १ देखो उन उल्लेखोंके वे फुटनोट जिनमें उनके कर्ताओंका समय दिया हुआ है।
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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