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________________ गुणादिपरिचय । उपरके शिलालेखमें 'गुणतो गणीशः' विशेषणके द्वारा "समन्तभद्रको गुणोंकी अपेक्षा गणियोंका-संघाधिपति आचायॊका- ईश्वर ( स्वामी ) सूचित किया है । साथ ही, यह भी बतलाया है कि, 'आप समन्तात् भद्र' थे—बाहर भीतर सब ओरसे भद्ररूप* थेअथवा यो कहिये कि आप भद्रपरिणामी थे, भद्रवाक् थे, भद्राकृति थे, भद्रदर्शन थे, भद्रार्थ थे, भद्रावलोकी थे, भद्रव्यवहारी थे, और इस लिये जो लोग आपके पास आते थे वे भी भद्रतामें परिणत हो जाते थे। शायद इन्हीं गुणोंकी बजहसे दीक्षासमय ही, आपका नाम · समन्तभद्र ' रक्खा गया हो, अथवा आप बादको इस नामसे प्रसिद्ध हुए हों और यह आपका गुणप्रत्यय नाम हो । इसमें संदेह नहीं कि, समंतभद्र एक बहुत ही बड़े योगी, त्यागी, तपस्वी और तत्त्वज्ञानी हो गये हैं । आपकी भद्रमूर्ति, तेज:पूर्ण दृष्टि और सारगर्मित उक्त अच्छे अच्छे मदोन्मत्तोंको नतमस्तक बनानेमें समर्थ थी। आप सदैव ध्यानाध्ययनमें मग्न और दूसरोंके अज्ञान भावको दूर करके उन्हें सन्मार्गकी ओर लगाने तथा आत्मोन्नतिके पथ पर अग्रसर करनेके लिये सावधान रहते थे । जैनधर्म और जैन सिद्धान्तोंके मर्मज्ञ होनेके सिवाय आप तर्क, व्याकरण, छंद, अलंकार और काव्यकोषादि ग्रंथोंमें पूरी तौरसे निष्णात थे। आपकी अलौकिक प्रतिभाने तात्कालिक ज्ञान और विज्ञानके प्रायः सभी विषयों पर अपना अधिकार जमा लिया था । यद्यपि, आप संस्कृत, प्राकृत, कनड़ी और तामिल आदि कई भाषाओं के पारंगत विद्वान् थे, फिर भी संस्कृत भाषा पर * 'भद्र ' शब्द कल्याण, मंगल, शुभ, श्रेष्ठ, साधु, मनोज्ञ, क्षेम, प्रसा और सानुकम्प आदि अथोंमें व्यवहृत होता है।
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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