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________________ प्रन्थ-परिचय । २३९ ~ आप्तमीमांसाके प्रथम पद्य द्वारा उसके व्यभिचारको दिखलाया है; आगे भी इसी प्रकारके अनेक हेतुप्रयोगों तथा विकल्पोंको उठाकर आपने अपने ग्रंथकी क्रमशः रचना की है और उसके द्वारा सभी आप्तोंकी परीक्षा कर डाली है। वसुनन्दि-वृत्तिकी प्रस्तावनाके वे वाक्य इस प्रकार हैं___"........स्वभक्तिसंभारप्रेक्षापूर्वकारित्वलक्षणप्रयोजनवद्गुणस्तवं कर्तुकामः श्रीमत्समन्तभद्राचार्यः सर्वनं प्रत्यक्षीकृत्यैवमाचष्टे हे भट्टारक संस्तवो नाम माहात्म्यस्याधिक्यकथनं । त्वदीयं च माहात्म्यमतीन्दियं मम प्रत्यक्षागोचरं । अतः कर्थ मया स्तूयसे । अत आह भगवान् ननु भो वत्स यथान्ये देवागमादिहेतोर्मम माहात्म्यमवबुध्य स्तवं कुर्वन्ति तथा त्वं किमति न कुरुषे । अत आह-अस्माद्धेतोने महान् भवान् मां प्रति । व्यभिचारित्वादस्य हेतोः । इति व्यभिचारं दर्शयति-" इस तरह पर, लघुसमन्तभद्रके उक्त स्पष्ट कथनका प्राचीन साहित्यपरसे कोई समर्थन होता हुआ मालूम नहीं होता। बहुत संभव है कि उन्होंने अष्टसहस्री और आप्तपरीक्षाके उक्त वचनोंपरसे ही परम्परा कथनके सहारेसे वह नतीजा निकाला हो, और यह भी संभव है कि किसी दूसरे ग्रंथके स्पष्टोलेखके आधारपर, जो अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ. वे गंधहस्ति महाभाष्यके विषयमें वैसा उल्लेख करने अथवा नतीजा निकालनेके लिये समर्थ हुए हों। दोनों ही हालतोमें प्राचीन साहित्य परसे उक्त कथनके समर्थन और यथेष्ट निर्णयके लिये विशेष अनुसंधानकी जरूरत बाकी रहती है, इसके लिये विद्वानों को प्रयत्न करना चाहिए।
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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