SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३८ स्वामी समन्तभद्र । इसके सिवाय, आप्तमीमांसाके साहित्य अथवा संदर्भपरसे जिस प्रकार उक्त पद्यके अनुसरणकी या उसे अपना विचाराश्रय बनानेकी कोई खास ध्वनि नहीं निकलती उसी प्रकार 'वसुनन्दि-वृत्ति' की प्रस्तावना या उत्थानिकासे भी यह मालूम नहीं होता कि आप्तमीमांसा उक्त मंगल पद्य ( मोक्षमार्गस्य नेतारमियादि ) को लेकर लिखी गई है, वह इस विषयमें अष्टसहस्रीकी प्रस्तावनासे कुछ भिन्न पाई जाती है और उससे यह स्पष्ट मालूम होता है कि समन्तभद्र स्वयं सर्वज्ञ भगवानकी स्तुति करनेके लिये बैठे हैं—किसीकी स्तुतिका समर्थन या स्पष्टीकरण करनेके लिये नहीं उन्होंने अपने मानसप्रत्यक्षद्वारा सर्वज्ञको साक्षात् करके उनसे यह निवेदन किया है कि ' हे भगवन् , माहात्म्यके आधिक्य-कथनको स्तवन कहते हैं और आपका माहात्म्य अतीन्द्रिय होनेसे मेरे प्रत्यक्षका विषय नहीं है, इस लिये मैं किस तरहसे आपकी स्तुति करूँ ?' उत्तरमें भगवान्की ओरसे यह कहे जानेपर कि ' हे वत्स, जिस प्रकार दूसरे विद्वान् देवोंके आगमन और आकाशमें गमनादिक हेतुसे मेरे माहात्म्यको समझकर स्तुति करते हैं उस प्रकार तुम क्यों नहीं करते ? समन्तभद्रने फिर कहा कि ' भगवन् , इस हेतुप्रयोगसे आप मेरे प्रति महान् नहीं ठहरते--मैं देवोंके आगमन और आकाशमें गमनादिकके कारण आपको पूज्य नहीं मानता क्यों कि यह हेतु व्यभिचारी है, ' और यह कह कर उन्होंने १ अष्टसहस्रीकी प्रस्तावनाके जो शब्द पीछे फुटनोटमें उद्धृत किये गये हैं उनसे यह पाया जाता है कि निःश्रेयसशास्त्रकी आदिमें दिये हुए मंगल पद्यमें आप्तका स्तवन निरतिशय गुणों के द्वारा किया गया है। इसपर मानो आप्त भगवानने समन्तभद्रसे यह पूछा है कि मैं देवागमादिविभूतिके कारण महान् हूँ, इस लिये इस प्रकारके गुणातिशयको दिखलाते हुए निःश्रेयस शास्त्रके कर्ता मुनिने मेरी स्तुति क्यों नहीं की ? उत्तरमें समन्तभरने आप्तमीमांसाका प्रथम पद्य कहा है।
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy