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________________ समय-निर्णय। १६७ यह सब क्या कुछ कम हानि है ! समझमें नहीं आता कि न्यायशास्त्रीजीने विना पूर्वापर सम्बन्धोंका विचार किये ऐसा क्यों लिख दिया । अस्तु; हमारी रायमें, प्रथम तो जयसेनादिका यह लिखना ही कि 'कुन्दकुन्दने शिवकुमार महाराजके सम्बोधनार्थ अथवा उनके निमित्त इस पंचास्तिकायकी रचना की ' बहुत कुछ आधुनिक * मत जान पड़ता है, मूल ग्रंथमें उसका कोई उल्लेख नहीं और न श्रीअमृतचंद्राचार्यकृत प्राचीन टीकापरसे ही उसका कोई समर्थन होता है। स्वयं कुन्दकुन्दाचार्यने ग्रंथके अन्तमें यह सूचित किया है कि उन्होंने इस ' पंचास्तिकायसंप्रह' सूत्रको प्रवचनभक्तिसे प्रेरित होकर मोर्गकी प्रभावनार्थ रचा है। यथा-- * १३ वी १४ वीं शताब्दीके करीबका; क्योंकि बालचंद्रमुनि विक्रमकी १३ वी शताब्दीके विद्वान् थे। उनके गुरु नयकीर्तिका शक सं० १०९९ (वि. सं० १२३४ ) में देहान्त हुआ है। और जयसेनाचार्य विक्रमकी प्रायः १४ वीं शताब्दीके विद्वान् मालूम होते हैं। उन्होंने प्रवचनसारटीकाकी प्रशस्तिमें जिन 'कुमुदेन्दु ' को नमस्कार किया है वे उक्त बालचंद्र मुनिके समकालीन विद्वान् थे। आपकी प्राभूतत्रयकी टीकाओंमें गोम्मटसार, चारित्रसार, द्रव्यसंग्रह भादि ११ वी १२ वीं शताब्दियोंके बने हुए ग्रंथों के कितने ही उल्लेख पाये जाते हैं। ऐसी हालतमें पंचास्तिकायटीकाके अन्तमें 'पंचास्तिकायः समाप्तः' के बाद जो ' विक्रम संवत् १३६९ वर्षेराश्विन शुद्धि १ भौम दिने' ऐसा समय दिया हुआ है वह आश्चर्य नहीं जो टीकाकी समाप्तिका ही समय हो। १ प्रो. ए. चकवर्ती, 'पंचास्तिकाय' की प्रस्तावनामें लिखते हैं कि प्राभूतत्रयके सभी टीकाकारोंने इस बातका उल्लेख किया है कि इन तीनों ग्रंथोंको कुन्दकुन्दाचार्यने अपने शिष्य शिवकुमारके हितार्थ रचा है; परंतु अमृतचंद्राचार्यकी किसी भी टीकामें ऐसा कोई उल्लेख हमारे देखने में नहीं भाया । नहीं मालम प्रो० साहबने किस आधार पर ऐसा कथन किया है। २ 'मार्गो हि परमवैराग्यकरणप्रवणा पारमेश्वरी परमाना। (अमृतबन्द्र)।
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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