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________________ मुनि-जीवन और भापत्काल । होता, और न समन्तभद्रके सम्बंधमें वह कुछ युक्तियुक्त ही प्रतीत होती है। इन्हीं सब कारणोंसे हमारा यह कहना है कि ब्रह्म नेमिदत्तने 'शिवकोटि' को जो वाराणसीका राजा लिखा है वह कुछ ठीक प्रतीत नहीं होता; उसके अस्तित्वकी संभावना अधिकतर कांचीकी ओर ही पाई जाती है, जो समंतभद्रके निवासादिका प्रधान प्रदेश रहा है । अस्तु । शिवकोटिने समन्तभद्रका शिष्य होनेपर क्या क्या कार्य किये और कौन कौनसे ग्रंथोंकी रचना की, यह सब एक जुदा ही विषय है जो खास शिवकोटि आचार्यके चरित्र अथवा इतिहाससे सम्बंध रखता है, और इस लिये हम यहाँपर उसकी कोई विशेष चर्चा करना उचित नहीं समझते। 'शिवकोटि' और 'शिवायन' के सिवाय समंतभद्रके और भी बहुतसे शिष्य रहे होंगे, इसमें संदेह नहीं है परंतु उनके नामादिकका अभी तक कोई पता नहीं चला, और इस लिये अभी हमें इन दो प्रधान शिष्यों के नामोंपर ही संतोष करना होगा। समंतभद्रके शरीरमें 'भस्मक' व्याधिकी उत्पत्ति किस समय अथवा उनकी किस अवस्थामें हुई, यह जाननेका, यद्यपि, कोई यथेष्ट साधन नहीं है, फिर भी इतना जरूर कहा जा सकता है कि वह समय, जब कि उनके गुरु भी मौजूद थे, उनकी युवावस्थाहीका था। उनका बहुतसा उत्कर्ष, उनके द्वारा लोकहितका बहुत कुछ साधन, स्याद्वादतीर्थके प्रभावका विस्तार और जैनशासनका अद्वितीय प्रचार, यह सब उसके बाद ही हुआ जान पड़ता है । 'राजावलिकथे' में तपके प्रभावसे उन्हें 'चारण ऋद्धि'की प्राप्ति होना, और उनके द्वारा, 'रत्नकरंडक' आदि ग्रंथोंका रचा जाना भी पुनर्दीक्षाके बाद ही लिखा है । साथ ही, इसी अवसर पर उनका खास तौरपर ' स्याद्वाद-वादी'-स्याद्वाद
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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