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________________ www मुनि-जीवन मोर नापत्काल । देवागमकी वसुनन्दिवृत्तिमें मंगलाचरणका प्रथम पद्य निम्न प्रकारसे पाया जाता है सार्वश्रीकुलभूषणं क्षतरिपुं सर्वार्थसंसाधनं सभीतेरकलंकभावविधृतेः संस्कारकं सत्पथम् । निष्णातं नयसागरे यतिपर्ति ज्ञानांशुसद्भास्कर भेत्तारं वसुपालभावतमसो वन्दामहे बुद्धये ॥ यह पद्य यर्थक है, और इस प्रकारके धर्थक व्यर्थक पद्य बहुधा ग्रंथों में पाये जाते हैं। इसमें बुद्धिवृद्धिके लिये जिस 'यतिपति' को नमस्कार किया गया है उससे एक अर्थमें 'श्रीवर्द्धमानस्वामी' और दूसरे में 'समंतभद्रस्वामी' का अभिप्राय जान पड़ता है । यतिपतिके जितने विशेषण हैं वे भी दोनोंपर ठीक घटित हो जाते हैं। 'अकलंक भावकी व्यवस्था करनेवाली सन्नीति (स्याद्वादनीति ) के सत्पथको संस्कारित करनेवाले ' ऐसा जो विशेषण है वह समन्तभद्रके लिये भट्टाकलंकदेव और श्रीविद्यानंद जैसे आचार्यों द्वारा प्रयुक्त विशेषगोंसे मिलता जुलता है। इस पद्यके अनन्तर ही दूसरे पद्यमें, जो ऊपर उद्धृत भी किया जाचुका है, समंतभद्रके मतको नमस्कार किया है । मतको नमस्कार करनेसे पहले खास समन्तभद्रको नमस्कार किया जाना ज्यादा संभवनीय तथा उचित मालूम होता है। इसके सिवाय इस वृत्तिके अन्तमें जो मंगल पद्य दिया है वह भी धर्थक है और उसमें साफ तौरसे परमार्थविकल्पी 'समंतभद्रदेव' को नमस्कार अर्थक भी हो सकता है, और तब यतिपतिसे तीसरे अर्थमें वसुनन्दीके गुरु नेमिचंद्रका भी आशय लिया जा सकता है, जो वसुनन्दिश्रावकाचारकी प्रशस्तिके अनुसार नयनन्दीके शिभ्य और श्रीनन्दीके प्रविष्य थे।
SR No.010776
Book TitleSwami Samantbhadra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1925
Total Pages281
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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