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________________ मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसरि वल्या जिनचन्द्रसरि बरतं स्वगांविरोह हहा! सिद्धान्तः करिष्यत किमपि यत्तन्नेव जानीमहे ।। अर्थात्-आपकं स्वर्ग पधारने पर साहित्य शास्त्र निरर्थक हो गया. अर्थात् आप ही उसके पारगामी मर्मन थे, वैस ही न्यायशान्न लक्षण शुन्य हो गया, आपका आश्रय टूट जान से निराधार मन्त्रशान्त्रक मन्त्र परस्पर में मन्त्रणा करते है कि अब हमें किस का सहारा लेना चाहिए ? अर्थात-आप मन्त्रशान्त्र के भी अद्वितीय बाता थे। इसी प्रकार ज्योतिष की अवान्तर मंद रमल-विद्या ने आपके वियोग में वैराग्य वश मुक्ति का आश्रय लिया है, अब सिद्धान्त शान क्या करेंगे? इनका हमें पता नहीं है। प्रामाणिकराधुनिकर्षिययः प्रमाणमार्ग स्फुटमप्रमाणः । हहा! महाकटमुरस्थित ते स्वगांधिरोह जिनचन्नपुर। अर्थात-आधुनिक मीमांसकों के लिये प्रमाण मार्ग अप्रमाण स्वल्प हो गया है क्योंकि उसका विशेषत्र अब पृथ्वी पर नहीं रहाश्रीजिनचन्द्रमूरिजी! आप स्वगाधिरोहण से सव शास्त्रों में बड़ी हलचल मच गई है। इस प्रकार गुरु गुण गान करते करते श्रीगुणचन्द्रगणि अधीर हो । उनकी आंखों से अश्रुओं की धारा बहने लगी। इसी तरह अन्य साधु लोग भी गुल्लह से विह्वल होकर, परस्पर में
SR No.010775
Book TitleManidhari Jinchandrasuri
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShankarraj Shubhaidan Nahta
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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