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________________ मणिधारी श्रीजिनचन्द्रभूमि कर मूरि-महाराज ने न्द्रपली ' की ओर विहार किया। नपट्टी से नरपालपुर पधारे, वहां ज्योतिष शास्त्र के किश्चित अभ्याम से गर्विष्ट एक ज्योतिषी से साक्षात्कार हुआ। ज्योतिष सम्वन्धी चर्चा करते हुए मूरिजी ने उसे कहा कि चर. स्थिर. द्विस्वभाव इन ३ स्वभाव वाले लग्नों में किसी भी लग्न का प्रभात्र दिवाओ। ज्योतिषी के निहत्तर होने पर मूरिजी ने वृष लग्न क ११ से ३० अंशां तक के समय मार्गशीर्ष मुहर्न में श्री पार्श्वनाथ मन्दिर के समक्ष एक शिला १७६ वर्ष तक स्थिर रहने की प्रतिज्ञा से अमावस्या के दिन स्थापित कर उस ज्योतिषी को जीत लिया। ज्योतिषी लजित होकर चला गया। श्रीजिनपालोपाध्याय गुर्वावली में लिखते है कि वह शिला अव (रचनाकाल सं० १३०५) तक वहां विद्यमान है। पबचन्द्राचार्य से शास्त्रार्थ वहां से विहार कर श्रीजिनचन्द्रसूरिजी पुनः ठपल्ली पधार । वहां किसी दिन मुनि मण्डली सहित लयुवयस्क सूरि महाराज श्रीजिनदत्तमूरिजी ने यहा पधार र बहुत से व्यचियों को मन्यक्ती, टशविर्गन, सर्वविरति बनाम था। एवं श्री पार्श्वनाथ स्वामी और श्रीपभदेव प्रमुक त्रलय में प्रतिष्ठा की थी। श्रीजिन्वभिमूरिजी के शिष्य अंजिनावरांनाथाय भी यहीं के थे । इस स्थान के नाम पर रखरतरगच्छ की वरीय शाखा इन्हीं से प्रादूभूत हुई।
SR No.010775
Book TitleManidhari Jinchandrasuri
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherShankarraj Shubhaidan Nahta
Publication Year
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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