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________________ (६८) - अय श्री संघपट्टका AnnRAA - NAM - यात् यःकश्चिन्महासत्वो नृषुलिंगिन्नावनानावितेषु मर्येषु. कुबोधं कुदेशनोत्पादितमसत्पथे पि सत्पथनमं निरसिसिषुर्बि नित्सुः ॥ यदि हि कथंचिदमीषां मूढानां दुरध्वदोषसामस्त्यप्रदर्शनेनायं कुबोधो विध्वंसते तदामी उपकृता नवंतीत्याशयेन दोषसंख्यां दूषणेयत्तां विवदेत् अनिधित्सेत् ॥ अर्थः-ते हेतुमाटे दुष्ट एवो जे मार्ग अने जे पुष्ट मार्गमा रहेनार पुरुषो ए बेनो उपचारथी अन्नेद ने तेथी ए प्रकारे कडं. आ पूर्व कह्यो एवो जे पुष्ट मार्ग तेने विषे जगपुरुषो बुमे , तेने देखी ए प्रकारनी करुणा श्रावी जे, आ पुरुषो कुमार्गरूपी कादवमा बुझे ले एवा अध्यवसायथी तेमने नहरवा आ कडं , एम संबंध जाणवो. लिंगधारीनी नावनावमे सहित थएला तथा कुदेशनाथी नत्पन्न थएलो जे कुबोध एटले असत् मार्गने विषे पण था सत् मार्ग एवी ब्रांति तेने नाश करवा श्चता अने जय पामता एवा पुरुषो तेनी मध्ये कोश्क महासत्ववाळो पुरुष एम विचारे जे, को प्रकारे आ मूढ पुरुषोने पुष्ट मार्ग संबंधी समस्त दोष देखामीए तो तेणे करीने एमनो कुबोध नाश पामे तो एमनो उपकार कयों कहेवाय एवा अभिप्रायवमे दोष संख्याने कहेवा इछे । टीकाः-एतावत् संख्या अत्र कुमार्गे दोषाः संतीति योवक्तुमिदित्यर्थः ॥ स पुमान् अंगोजलं अंनोधेरणवस्य प्रमिसेत् ॥ श्यदत्रांन इति चुलुकादितिः संचिख्यासेत् ॥ जलधिजलामित्सानिदर्शनेन दुरध्वदोषापामसंख्येयतासिया
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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