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________________ -g. अथ श्री संघपट्टका - अर्थ-तमाल वृक्षना जेवा काला मेघथी पोलो जे पाणीनो प्रवाह ते पृथ्वीने जरी जरीने ते प्रकारे उंचो श्रतिशे वघ्यो जे प्रकारे जंगवानना कंठ उपर निरंकुशपणे श्रारोहण थयो. ते उपर अलंकार करे . जे ए वात घटेज, जे नीचाणमां गमन करनार तेनी उपेक्षा करवी ते पोताना अपकार लणी थाय . जेम नीच पुरुष ने तेनी उवेखणा करी जे हशे श्रापणुं अपमान कयु तो करवा यो इत्यादि प्रकारे जो करे तो ते नीच पुरुष अंत्ये जतां आपणुं गेलु काले तेम ते नीचाण चालनार जल ले तेनो एवो स्वनाव थयो जे हलवे हलवे परमात्माना कंठ उपर श्रावी बेटुं ॥ ७० ॥१॥ ___टीका-श्रमोघः पाथसामोघः समैधिष्ट यथा यथा ।। Wयेव जिनस्यापि ध्यानवन्हिस्तथौर्ववत् ॥ २ ॥ अर्थः-सफळ एवो पाणीनो प्रवाह जेम जेम वृद्धि पाम्यो तेम तेम परमात्मानो पण ध्यानरूपि अग्नि ाए करीने जाणे वमवानल अमीनी पेठे देदीप्यमान यतो हवो ॥२॥ टीका-नीलकुंतलरोक्षवं पदमलाक्षिदमलम् ॥ दंततिमधुस्पंदि ग्रीवानालोपलक्षितम् ।। ३ ॥ इंदीवर श्रियंबित्र दश्यानतान नम् ॥ घनमुक्तपय पूरनिमग्रवपुषः प्रनोः॥४॥ युग्मम् अर्थः-त्यार पनी मेघे मुकेसा पाणीना पुरमा निमन ययु के शरीर जेनु एवा लगवान तेमनुं जे, काला कमखनी शोनाने धारण करतुं एवं मुख ते प्रत्ये, लोकना समूह जोता हवा. तें मुख: वा ॥२॥
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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