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________________ - अथ श्री संघपट्टका - m नावनास्पदत्वान्न प्रत्यक्षेण तदन्नावोऽवसेयः ॥ अथानुमानेनेति द्वितीयः कल्पः ॥ तथापि किं तदनुमानं ॥ अर्थः--ते कारण माटे कोइ देशकालादिकने विषे ते प्रकारनो एटले शास्त्रमा कहेला गुणवाळो पण संघ ने एम संजाक्नान स्थान ए हेतु माटे, प्रत्यक्षपणे तीर्थनो अन्नाव जे एम न जाणवं. हवे अनुमानवझे तीर्थनो लछेद कहेवो ए प्रकारनो बीजो विकल्प तमारे मते ने तो पण बोलोजे ते कयुं अनुमान, एटले ते कये प्रकारे अनुमान प्रयोग करो बो? ते कही देखामो. - - टीका:----नवविदितः संघः संप्रति नास्ति क्वचिदनुपलज्यमानत्वात् अध्वस्तघटवदित्यनुमानमस्तीतिचेत् नाऽसर्व विदा मनुपलंनोपलंजयोनियतविषयत्वादेकत्र तदनुपलंन्नेन सर्वत्र तदनावासिक अर्थः-सिद्धांति लिंगधारीनो अभिप्राय कही खंमन करे जे, तमो कता हो के तमारो कहेलो संघ आ कालमां नथी, के मके कोइ जगाए देखातो नथी. ए हेतु माटे नाश पामेला घमानी पेठे ए प्रकारनो अनुमान प्रयोग के एम तमारे न धार, केमजे सवज्ञ नथी तेमने वस्तुनी प्राप्ति थायज अथवा न ज थाय एवो नियम नथी. एक जगाए जे वस्तु न दोगी ते वस्तुनो सर्व जगाए अनाव हशे एम वात सिक नयी थती. टीका:-तथा सिकांतमामाएयेन परीक्षापुरःसरंमृगयमा
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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