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________________ - अथ श्री संघपट्टका : अर्थः---जो प्रतु अहीं न आव्या होत त्यारे तो जन्माराना अंध पुरुषनी पेठे मगले मगले स्खलना पामतो आ लोक मोहथी, संसाररूप कूवामां परत एटले प्रजुए जो अहीं आवीने ए तप उष्ट न करी देखामयुं होत तो लोको मोदथी जूगमांसाचुं मानीने संसार रुप कूपमा पनी मरत ॥ ५५ ॥ टीकाः ततो विजो गुण स्तोत्र मसहिष्नुः स तापसः ॥ ततो देशादपक्रांतः प्रकाशा दंधकारवत् ॥ ५५ ॥ अर्थः-स्यार पठी ते तापसथी जगवाननी गुण स्तुति सहन न थइ ए कारण माटे जेम अजवालाश्री अंधारं नासे तेम ते देशथी नाठो ॥५५॥ . टोकासदर्कोपि संपर्कोविन्नो दुःखाय केवलम् ॥ तस्या नव दुलूकस्य प्रकाश व जास्वतः ।। ५६ ॥ . अर्थः-सारु ने उत्तर फल जेनुं एवो पण लगवाननो संबंध से केवल ते तापसने दु:ख जणी थयो. जेस सूर्यनो प्रकाश घूमने सुख जणी थाय तेम ॥५६॥ टीकाः-ततः कृत्वा तवज्ञानात् जरठः कम स्तपः ॥ मेघमालीतिविबुधो ऽजनि स्तनितनामसु ॥ ५ ॥ . अर्थ:-त्यार परी ते वृक्ष कमल नासे तापल अज्ञानथी तप करीने स्तवित नामे दशमी निकायने विषे मेघमाली नामे देवता थयो. ॥५॥ . टीकाः-गीयमाचो जगन्नाथो गाथकै नगरी ततः॥ विवेश पेशसस्थेम्ना वृत्रहेवा मरावतीम् ॥ ५ ॥
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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