SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 561
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -4 अथ श्री संघपट्टकः -- ( ५३९ ) चैत्यं वासादि उत्सूत्र वतावनार ने विधिमार्गनी प्ररूपणा करवामा निपुण ने सुगुरुना संप्रदायमां वर्तनार सुविहित जनोनी हांसो करनार एवा आज कालना श्राचार्यो कविए या जंगोथी बतावी श्राप्यावे. 1 टीका:- सांप्रतं श्रुतपथावज्ञाद्वार मुपसंजिहीर्षुः शुद्ध जिन मार्गस्य दुष्टोपचितसमुदितकारणकलापेन संप्रति डुर्लनत्वं प्रतिपादयन्नाद || अर्थ:- हवे सिद्धांत मार्गनी अवगणनानुं जे द्वार तेनी समासि करवाने इता ग्रंथकार जे ते दुष्ट पुरुषोए वृद्धि पमाड्या जे घणांक कारण तेना समूहे करीने श्रा दुखम काळमां शुद्ध जिनराजनो जे मार्ग तेनुं दुर्लभपणुं वे एम प्रतिपादन करता बता ग्रंथकार कदे दे. मूल काव्यम् ॥ सैषा हुंमावसर्पिण्यनुसमयहूसङ्गव्यजावानुभावा । त्रिंशश्रोग्रयोऽयंखखनखमितिवर्ष स्थितर्भस्मराशिः ॥ अंत्यं चाश्रर्यनेत किनमतहत येतत्सना माचे | त्येवं पुष्टेषु दुष्टेष्वनुकलमधुना दुर्लनो जैनमार्गः ॥३०॥ टीका:या श्रागमथेष्वागामितया लिखिनाकार्यते सा - एषा संप्रति काकस्या प्रत्यक्षत्वेपि तद्भवकार्याणा
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy