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________________ ९.९३८) - अय श्री संघपट्टका - सिष्यति ॥ अहो एते बालिशाः शुद्धसिद्धांतदेशनामलयजरसेनसुरजिणाऽने ननात्मानं चर्चयंततितिदेतेषां यथोक्तागमार्थनाषकगीतार्थोपदसनंकुलधर्मः ॥ एवं च यत् स्वयमगीतार्थनिलयोपि गीतार्थानवमन्यते संप्रतितनरुढ्या तन्महाकष्टमित्युपमानोपमेययोस्तुल्यतया योजना ॥ __ अर्थः----वळी पोताना आत्माने उत्सूत्रवमे लेप नहि करनार एवा ते अगीतार्थोन जोइने ते गोतार्थ पुरुषो एम कहे जे जे अहो पातो अतिशेज मूर्ख जे जे सिद्धांतनी देशनारुप जे मलयचंदननो सुगंधीमान रस तेरो करीने पोताना आत्माने चर्चता नथी माटे ए श्रगीतार्थ पुरुषो जे जे तेमने आगमना अर्थने जाषण करनार एवा गीतार्थ पुरुषोनुं जे उपहास्य कर ते एमनो कुलधर्म के ए प्रकारे जे पोतेज गोतार्थनुं घर हे तो पण आ कालनी रूढिए करीने जे गीतार्थ पुरुषोतो अवगणना करे ने ते मोटुं कष्ट बे एम नपमान ने उपमेय वस्तुनो तुल्यपणानी योजना करवी. टीका:-अत्र च सुग्धजनपुरतो निरंकुशं स्वकलितं चैत्यावासादिक मुत्सूत्रपथं प्रथयन् विधिविषयपारतंत्र्यप्ररूपणानि-: पुणान् सुगुरुसंप्रदायवर्तिनः सुविहितानसूययोपहसन् संप्रति , । वर्तमानः कुसंघाचार्योऽनया नंग्या कविना प्रतिपादित इति . वृत्तार्थः ॥ २९ ॥ अर्थ:-..यहां तो जो कोना साने निरंकुशंप से स्थापित
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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