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________________ (323) -40 अथ श्री संघपट्टकः 8 टीका:- तथा यलोको जैनमार्ग व हिर्भूतः शिष्टज़नः खोकोत्तरं जिन प्रवचनं ताभ्यामुत्तीर्ण बाह्यं सूतक गृह जिक्षा ग्रहणादि एतद्धि लोकलोकोत्तरयो विरुद्धत्वान्न धर्मस्ते तु गा. दिहेतुनैतदपि धर्म इत्य निदधति ॥ अर्थ:-वळी जे लोक कहेतां जैन मार्गथी रहित एवा सारा लोक तथा लोकोत्तर कहेतां जिनराजनुं प्रवचन ते बेथी जे रहित एटले जे लोकने - लोकोत्तरथी विरुद्ध ते शुं तो सूतकीना घरनी चिकादिकनुं ग्रहण कर इत्यादि ए वात निचे लोकने लोकोत्तर एवेने विषे विरुद्ध वे ए हेतु माटे धर्म नथी. तो पण लिंगधारीचं लोनादि कारणे, करीने एने पण धर्मरुपे स्थापन करी देखा मे बे टीका:-यदाह ॥ vिer सूतकमंदिरे जगवतां पूजा मलिन्या स्त्रिया | होनानां परमेष्टि संस्तव विवेच्छिक बंदीयं ॥ जैनेंद्र प्रतिमा विधापनम हो तल्लोक लोकोचर ॥ व्यावृत्ते रथ हेतु मध्यत्रिणः श्रेयस्तथा चक्षते ॥ अर्थः- ते बात कही ढे जे सुतकीने घेर निक्षा करवी तथा मलीन स्त्री जगवंतनी पूजा करे, तथा दीप जातिवाळाने परमेष्टि जगवंतना स्तोत्रमंत्र । विधि शिखववो, तथा तेमने दोका यावी, तथा तेमनी पासे जिनेंद्रनी प्रतिमानुं विधिविधान स्थापतादिकनुं कराव. ए प्रकारे ए बुद्धिहोय लिंगवारीत लोक लोकोतर की एस विरुद्ध बे तेने पय धर्मनुं कारण वे ए प्रकारे
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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