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________________ (५२०) - अय श्री संघपट्टका - M जे श्रेणिकराजाए रजोहरण देखीने वंदनादिक कर्यु. पण एम दि. चारता नथी जे ए वात श्रागमने विष को जगाए सखी नथी, जे तेणे करीने ए वात साची थाय. परंतु ए लिंगधारी पोतानुं वंदनपणुं प्रतिपादन करवाने तेने परा धर्म बे ए प्रकारे बोले . टीका:-यदाह ।। श्री श्रेणिक क्षितिपतिः किल सारमेय. लांगूल मूलनिहितं यतिवद्ववंदे ॥ जकत्या रजोहरणमित्यनृत वदंति ही लिंगिनो वृषतया कुधीयः प्रलब्धं ॥ अर्थः-ते कह्यु डे जे पुष्ट बुद्धिवाळा लिंगधारी जोळा लोकने उतरवा सारु या प्रकारे जुलु बोले जे श्री श्रेणिकराजा जे ते जेम को पुरुषे कूतरानुं पूंगहुं वगलमां धायु होय तेम रजोहरण मात्र ग्रहण करनारने शक्तिए करीने साधुनी पेठेज वंदन कर्यु माटे ए प्रकारे हे श्रावक लोको तमारो धर्म एटले तमारे पण एज प्र: कारे वंदन कर ए प्रकारनो धर्म कही देखा . आवक लोको कराने साधुनीतम रजोहरण कारे टीका:--तथा यदपि अपि समुच्चये यच्चानुचितमयोग्य। पित्राद्युद्देशेन यात्राकरणादि धर्मनिमित्तं हि कृत्यजातं जिनमदिरे कर्तुमुचितं नान्यत् ॥ पित्रायुदेशेन तु यात्रादि तत्र विधीय. मानं गुणवहुमान विकलकेवलस्नेहनिबंधनत्वान्नधर्मः ॥ परं तदपि लिंगिनो धर्मोयमित्यनिधाय स्वोपयोगाय विधापयति ॥ अर्थः-यदपि ए जगाए अपि शब्द समुच्चय अर्थने विषे
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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