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________________ 9 अप श्री संघपट्टका - - - .......... ... .. MAnAAMAN RAHAM ॥ मूल काव्यम् ॥ यत् किंचिदितथं यदप्यनुचितं यल्लोकलोकोत्तरो। त्तीर्ण यद्लव देतुरेव नविनां यच्छास्त्रबाधाकरं ॥ तत्तधर्म इति ब्रुति कुधियो मूढास्तदईन्मत। ज्रांत्या तांति च दाउरंतदशमाश्चर्यस्य विस्फूर्जितम्॥श्ना टीका:-तत्तदितिवीप्सायां सर्वसंग्रहमाद ॥ धर्म साधनमनुष्टानमिह धर्मस्ततश्चधर्म इति सुकृतमिदमित्येवंरुप. तया त्रुति वदंति कुधीयो उर्मेधसो नाम जैनाः ।। यत्किंइत्याद।। यत्किंचिदिति सामान्यतो निर्दिष्टं विशेष तोऽनिर्दिष्टनाम कं वितथमलीकं श्रेणिकराजरजोहरणवंदनादि न ह्येतदागमेक्वचितिखितमस्ति येन सत्यं स्यात् परं लिंगिनः स्ववंद्यता ।। पादनायै तदपि धर्म इति नापते ।। अर्थः-कहीशु ए सर्वे वातोनो संग्रह थाय ते कडे जे पुष्ट बुद्धिर्जवाळा केवळ नाम मात्रथी जैनी कहेवाता एवा ए लिंगधारीन जे ते श्रागळ कहीशुं ए सर्वेने श्रातो धर्म वे एप्रकारे वो के. तत् शब्दनुं वेवार उच्चारण कर तेथी आगळ कहे जे श्रा जगाए धर्म साधन करवानुं जे अनुष्टान तेने धर्म कहोए एटसे धर्मरुपपणे स्थापन करे . ते शुंस्थापन करे ठे? तो जे कांश स्थापन करेठे ते कहीए जीए. जे कांश सामान्यथी देखाम्युं होय ने विशेषयकी नाम न देखामयुं होय एवी जगाए जुटुं घोले ,
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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