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________________ (५००) 8. अथ श्री संघपट्टकः - - • टीका:-श्रुतपथाज्जैनसिद्धांतमार्गात् वैमुख्यं एतावंतमनेहसं वयमज्ञाः स्याल यदेतदेव तात्विकं धर्मदर्शनं निरपवादं ॥ परंयत्राप्येवं विधासदाचारकारिणो विलोक्यते ॥ तदालमनेन ताम्रहिरन्मयालकारदेशीयेनांतनिः सारेण वहिर्मात्रिमनोहरेण ॥ सर्वथा प्राक्स्वीकृत मेवास्माकं दर्शनं श्रेयः॥ अहो जैना ‘अन्यथावादिनोऽन्यथाकारिणइत्यादिवचनसंदर्जेण• पराङमुखत्वं सर्वथा बहिर्नाव मिति यावत् आतन्वते दर्शयति॥ अर्थ:-जिनना सिद्धांत थकी विमुखपणुं शी रीते पामे तोते कहे जे जे श्रमो आटला काळ सुधी अज्ञानीज इता. जे हेतु माटे अमो जाणता हता जे निर्वाध 'यथार्थ धर्म दर्शन तो बाज डे पण जे दर्शनने विषे आ प्रकारना असत् आचरण करनारादिंगधारी देखाय ले माटे ए दर्शनवमे सयुं श्रातो उपरथी सोनाए रसेतुं तांबाना आजूषण जे मांहेथी निःसार ने केवळ बारणेथी मनोहर जगातुं आ जैन दर्शन माटे सर्वथा पूर्वे अंगिकार करेलुं आपणुं दर्शनज सारं अहो आतो माटुं आश्चर्य जे था लोकतो बोले ने जुएं ने करे ले जु, इत्यादि वचनना समुहने कहेता सता सर्वथा जैन दर्शनथी वहिर्नाव एटले जैन दर्शननो त्याग करी देखा . टीका तथा येषां मिथ्योच्या मृषावचनेन ॥ तेहि स्खलिताचारत्वेन सर्वशंकितत्वात् असमंजसचेष्टितं प्रति केन चित् पृष्टा स्संतो मलिम्बुचवदलीकं नापते॥ यथा कएवमाह। नवयमेवं विधकारिण इति ॥ ततश्च प्रत्यक्षोपलक्षितदोषापड
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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