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________________ 8. अय श्री संघपष्टका - (४२७) - - - विकार रहित सदाकाल एटले निरंतर होय ॥ टीकाः--नतु सर्वदा ॥ तदैव तेषां ज्ञानांकुशेन स्वचित्तमाकृष्य मिथ्याउःकृतादिप्रायश्चित्तातिपत्तेः॥ एतेतु एगागिय. स्स दोसा, इत्थी साणे तदेव परिणीतिरकविसोहिमहत्वयातम्हास विइजाए गमणमित्याचागमनिनिकाकिविचरणादिनाऽ सुबृंखलतयाच सदैव मन्त्रविकारजाज इतिसाधूक्तं साधु व्याजविटा इति ॥२४॥ अर्थ:----माटे ज्ञानरुपी अंकुशव पोताना चित्तनुं श्राकर्षण करी मिथ्या :कृत आदिक प्रायश्चित्तनुं अंगीकार करवं तेने सदाकाल भणकरतो एडवो. आलिंगधारी निरंतर काम विकारनेज मजे ले केम जे शास्त्रमा निषेध कर्यु एवं जे एकाकि विहार करवापणुं इत्यादिकने अतिशय उत्शृंखलपणे एटले मदोन्मत्तपणे करे ले ते एकाकि विहार उपर शास्त्रतुं वचन जे एका कि विहार करनारने स्त्री संबंधी तथा श्वान एटले कुतरां लम्बन्धी तथा शत्रु सम्बन्धी दोप नत्पन्न थाय ने तथा लिक्षानी शुद्धि थती नथी तथा महानतनो नंग थाय ठे माटे एकाकि विहार करवानो त्याग करवो माटे जे सिंगधारीने.साधुना मिपथी जणाता व्यनिचारी पुरुष का ते वात युक्त के. ॥२४॥ टीकाः-इति उक्तप्रकाराणि श्रादिशब्दा दन्यान्यप्येवं प्रायाथि विभवनाव्यंजकानि बचांसि गृह्यते ॥ ततश्च इत्यादी
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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