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________________ (४९) - अथ श्री संघपट्टका Wwwwww mmammaaaaamw.AAAAAAA - संघाथे थालाप संसापादि करतां देखीने ते प्रत्ये क्षमावाला न थता एटखे इर्ष्या करता एवा. टीका:--सकांक्षाः संजोगविलासाच्यासात् प्रतिक्षणं नवनवोपजायमानरिंरसोत्कलिकाः ॥ आरंनादयश्चयतीनां बहुदोषत्वादनेकधानिषिझाएव सदा सर्वदा ॥ विषयाणांमना दिनवान्यासात्कदा चित्सन्मुनेरपि कस्यापिचेतो विकारमात्रं प्रा. पुष्यात् ॥ अर्थः-वली ते लिंगधारीओ आकांक्षाए सहित डे एटः संजोग करवानो तथा विलास करवानो अभ्यास ने ए हेतु माटे क्षणे क्षणे नवी नवी रमवानी इच्छाओ जेमने उठे डे एवा साधुने प्रारंज आदिकनो अनेक प्रकारे निषेध डे केमके एमां बहु दोष. पपुंज डे ए देतु माटे निरंतर विषयनो अनादि कालनो श्रन्यास हे ए हेतु माटे क्यारेक कोइ पण सारा मुनिना चित्त प्रत्ये पण विकार मात्रने प्रगट थवापणुं ने माटे पुर्वे कयां जे कारण ते मुनिने सेववा योग्य नथी. टीकार-यमुक्तं ॥ नवि अस्थि नविय होही पाएणं तिहुयणमि सो जीवो ॥ जो जुषणमणुपत्तो वियाररहि सया हो॥ .... अर्थः ते वात शास्त्रमा कही जे जे एवो कोइ जीव प्रण जयमा बहुधा नथी तथा थशे पा. नहि जे यौवन अवस्था पामीने
SR No.010774
Book TitleSanghpattak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvallabhsuri
PublisherJethalal Dalsukh Shravak
Publication Year1907
Total Pages703
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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